अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
शृङ्गा॑भ्यां॒ रक्षो॑ नुदते॒ मूले॑न यातुधा॒न्यः। मध्ये॑न॒ यक्ष्मं॑ बाधते॒ नैनं॑ पा॒प्माति॑ तत्रति ॥
स्वर सहित पद पाठशृङ्गा॑भ्याम्। रक्षः॑। नु॒द॒ते॒। मूले॑न। या॒तु॒ऽधा॒न्यः᳡। मध्ये॑न। यक्ष्म॑म्। बा॒ध॒ते॒। न। ए॒न॒म्। पा॒प्मा। अति॑। त॒त्र॒ति॒ ॥३६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शृङ्गाभ्यां रक्षो नुदते मूलेन यातुधान्यः। मध्येन यक्ष्मं बाधते नैनं पाप्माति तत्रति ॥
स्वर रहित पद पाठशृङ्गाभ्याम्। रक्षः। नुदते। मूलेन। यातुऽधान्यः। मध्येन। यक्ष्मम्। बाधते। न। एनम्। पाप्मा। अति। तत्रति ॥३६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
विषय - ‘शतवार’ नामक वीर सेनापति का वर्णन।
भावार्थ -
(शतवारः) शत, सैकड़ों शत्रुओं को वारण करने में समर्थ पुरुष, (मणिः) शत्रुओं का स्तम्भन करने वाला और (दुर्नामचातनः) दुष्ट ख्याति वाले दुर्दान्त, बदनाम जीव पुरुषों का नाशकारी, अपने (वर्चसा सह) तेज से (आरोहन्) उन्नति को प्राप्त होकर (तेजसा) पराक्रम और तेज से (यचमान्) रोगकारी—पीड़ाकारी पुरुषों और (रक्षांसि) विघ्नकारी पुरुषों को (अनीनशत्) विनाश करे।
टिप्पणी -
(च०) ‘मणि’ इति बहुत्र। ‘मणि चातनम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। शतवारो देवता। अनुष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
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