अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
श॒तवा॑रो अनीनश॒द्यक्ष्मा॒न्रक्षां॑सि॒ तेज॑सा। आ॒रोह॒न्वर्च॑सा स॒ह म॒णिर्दु॑र्णाम॒चात॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽवा॑रः। अ॒नी॒न॒श॒त्। यक्ष्मा॑न्। रक्षां॑सि। तेज॑सा। आ॒ऽरोह॑न्। वर्च॑सा। स॒ह। म॒णिः। दु॒र्ना॒म॒ऽचात॑नः ॥३६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शतवारो अनीनशद्यक्ष्मान्रक्षांसि तेजसा। आरोहन्वर्चसा सह मणिर्दुर्णामचातनः ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽवारः। अनीनशत्। यक्ष्मान्। रक्षांसि। तेजसा। आऽरोहन्। वर्चसा। सह। मणिः। दुर्नामऽचातनः ॥३६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
विषय - ‘शतवार’ नामक वीर सेनापति का वर्णन।
भावार्थ -
वह शतवार नाम शिरोमणि, शत्रुनाशक पुरुप (शृङ्गाभ्याम्) सींगों के समान हिंसाकारी साधनों से (रक्षः नुदते) राक्षसों-दुष्ट पुरुषों को भगाता है। और (मूलेन) अपने मूल, स्थिर स्थिति से (यातुधान्यः) प्रजा को पीड़ाकारी स्त्रियों से बचाता है। (मध्येन) अपने बीच के भाग से (यक्ष्मं) यक्ष्म, रोगजनक कारणों को (बाधते) दूर करता है और (एनम्) इसको (पाप्मा) कोई भी पाप और पापकारी पुरुष (न अति तत्रति) नहीं दबा सकता।
टिप्पणी -
(च०) ‘तरति’ इति ह्विटनिकामितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। शतवारो देवता। अनुष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
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