अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
श॒तं वी॒रान॑जनयच्छ॒तं यक्ष्मा॒नपा॑वपत्। दु॒र्णाम्नः॒ सर्वा॑न्ह॒त्वाव॒ रक्षां॑सि धूनुते ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम्। वी॒रान्। अ॒ज॒न॒य॒त्। श॒तम्। यक्ष्मा॑न्। अप॑। अ॒व॒प॒त्। दुः॒ऽनाम्नः॑। सर्वा॑न्। ह॒त्वा। अव॑। रक्षां॑सि। धू॒नु॒ते॒ ॥३६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं वीरानजनयच्छतं यक्ष्मानपावपत्। दुर्णाम्नः सर्वान्हत्वाव रक्षांसि धूनुते ॥
स्वर रहित पद पाठशतम्। वीरान्। अजनयत्। शतम्। यक्ष्मान्। अप। अवपत्। दुःऽनाम्नः। सर्वान्। हत्वा। अव। रक्षांसि। धूनुते ॥३६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 36; मन्त्र » 4
विषय - ‘शतवार’ नामक वीर सेनापति का वर्णन।
भावार्थ -
वह (शतं वीरान्) सैकड़ों वीर पुरुषों को (अजनयत्) उत्पन्न करता है और (शतं यक्ष्मान्) सैकड़ों कष्टदायी पुरुषों को (अपावपत्) उखाड़ने में समर्थ है। वह (सर्वान्) समस्त (दुर्नाम्नः) बुरे पुरुषों को (हत्वा) मारकर (रक्षांसि) विघ्नकारी पुरुषों को (अव धूनुते) नीचे गिरा देता है, धुन डालता है।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘वीरा अजन—’ ‘वीरान्नं जन—’ इति च क्वचित्। ‘शतं वीराणि जनयच्छ—’ इति पैप्प० सं०॥ ‘वीर्याणि जनयन्’, ‘शतंवीरा अजनयन्’ इत्युभयथा ह्विटन्यनुमितौ पाठौ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। शतवारो देवता। अनुष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
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