अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
हिर॑ण्यशृङ्ग ऋष॒भः शा॑तवा॒रो अ॒यं म॒णिः। दु॒र्णाम्नः॒ सर्वां॑स्तृ॒ड्ढ्वाव॒ रक्षां॑स्यक्रमीत् ॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यऽशृङ्गः। ऋ॒ष॒भः। शा॒त॒ऽवा॒रः। अ॒यम्। म॒णिः। दुः॒ऽनाम्नः॑। सर्वा॑न्। तृ॒ड्ढ्वा। अव॑। रक्षां॑सि। अ॒क्र॒मी॒त् ॥३६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यशृङ्ग ऋषभः शातवारो अयं मणिः। दुर्णाम्नः सर्वांस्तृड्ढ्वाव रक्षांस्यक्रमीत् ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यऽशृङ्गः। ऋषभः। शातऽवारः। अयम्। मणिः। दुःऽनाम्नः। सर्वान्। तृड्ढ्वा। अव। रक्षांसि। अक्रमीत् ॥३६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
विषय - ‘शतवार’ नामक वीर सेनापति का वर्णन।
भावार्थ -
(हिरण्यशृङ्गः) हिरण्य अर्थात् धातु के बने अति प्रदीप्त शृङ्ग अर्थात् हिंसा साधन शस्त्रों वाला, (ऋषभः) नरश्रेष्ठ (अयं) यह (शातवारः मणिः) सैकड़ों का वारण करने में समर्थ शत्रुस्तम्भक पुरुष (सर्वान्) समस्त (दुर्णााम्नः) दुर्दमनीय, दुर्दान्त पुरुषों को (तृड्ढ्वा) नाश करके (रक्षांसि) प्रजा के कार्यों में विघ्नकारी पुरुषों को भी (अव अक्रमीत्) दबाता है।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘शतवारो’ इति क्वचित्। ‘दुर्णाः त्रिः सर्वास्त्रिढवा अपरक्षांस्यपक्रमीम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। शतवारो देवता। अनुष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें