अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 47/ मन्त्र 4
ष॒ष्टिश्च॒ षट्च॑ रेवति पञ्चा॒शत्पञ्च॑ सुम्नयि। च॒त्वार॑श्चत्वारिं॒शच्च॒ त्रय॑स्त्रिं॒शच्च॑ वाजिनि ॥
स्वर सहित पद पाठषष्टिः॑। च॒। षट्। च॒। रे॒व॒ति॒। प॒ञ्चा॒शत्। पञ्च॑। सु॒म्न॒यि॒। च॒त्वारः॑। च॒त्वारिं॒शत्। च॒। त्रयः॑। त्रिं॒शत्। च॒। वा॒जि॒नि॒ ॥४७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
षष्टिश्च षट्च रेवति पञ्चाशत्पञ्च सुम्नयि। चत्वारश्चत्वारिंशच्च त्रयस्त्रिंशच्च वाजिनि ॥
स्वर रहित पद पाठषष्टिः। च। षट्। च। रेवति। पञ्चाशत्। पञ्च। सुम्नयि। चत्वारः। चत्वारिंशत्। च। त्रयः। त्रिंशत्। च। वाजिनि ॥४७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 47; मन्त्र » 4
विषय - रात्रिरूप ब्रह्मशक्ति और राष्ट्रशक्ति।
भावार्थ -
हे (रेवति) धनवति ! ऐश्वर्यंवती राजशक्ते ! हे (सुम्नयि) प्रजा को सुख देनेहारी ! हे (वाजिनि) अन्न और बल से सम्पन्न ! हे रात्रि ! प्रजा सुखदात्रि ! हे (दिवः दुहितः) द्यौ=आदित्य की पुत्री, उषा के समान प्रकाश करने वाली (दिवः दुहितः) प्रकाश को दोहन, पूर्ण करने या प्रदान करने वाली राजसभे ! राजशक्ते ! (ते) तेरे जो प्रजा राज्य के व्यवहारों के देखने वाले संख्या में (षट् च षष्टिः श्व) छियासठ ६६ या (पञ्च पञ्चाशत्) पचपन, ५५, (चत्वारः चत्वारिंशत् च) चवालीस ४४ और या (त्रयः त्रिंशत् च) तैंतीस या (द्वौ च विंशतिः च) बाईस २२ या (अवमाः) सबसे कम (एकादश) ग्यारह विद्वान् पुरुष हैं (नः) हमें (अद्य) निरन्तर (तेभिः पायुभिः) उन पालन करने वाले देश पालक पुरुषों से (पाहि नु) हमें अवश्य पालन कर।
अर्थात् राजसभा में ९९, ८८, ७७, ६६, ५५, ४४, ३३, २२, या कमसे कम ११ विद्वान् हों उनके ऊपर राज्यकार्यों का देखने का भार हो। उन सभासदों का नाम ‘नृचक्षा’ है। इन्द्र की राजसभा में १००० ऋषि थे। इसीसे वह सहस्राक्ष कहाता था। अर्थशा० कौ०।
‘योनिरेव वरुणः’। श० १२। ९। १। १७॥ इस प्रमाण से गत सूक्त में शतयोनि का तात्पर्य ‘शतवरुण’ समझना चाहिये अर्थात् जिसके अधीन सौ प्रजा के स्वयंवृत नेता हों। वे प्रजा को संभालें इसीसे वे ‘शतधाम’ कहाते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथ ऋषिः। मन्त्रोक्ता रात्रिर्देवता। १ पथ्याबृहती। २ पञ्चपदा अनुष्टुब् गर्भा परातिजगती। ६ पुरस्ताद् बृहती। ७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। शेषा अनुष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्॥
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