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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 47

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - रात्रि सूक्त

    आ रा॑त्रि॒ पार्थि॑वं॒ रजः॑ पि॒तुर॑प्रायि॒ धाम॑भिः। दि॒वः सदां॑सि बृह॒ती वि ति॑ष्ठस॒ आ त्वे॒षं व॑र्तते॒ तमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। रा॒त्रि॒। पार्थि॑वम्। रजः॑। पि॒तुः। अ॒प्रा॒यि॒। धाम॑ऽभिः। दि॒वः। सदां॑सि। बृ॒ह॒ती। वि। ति॒ष्ठ॒से॒। आ। त्वे॒षम्। व॒र्त॒ते॒। तमः॑ ॥४७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रात्रि पार्थिवं रजः पितुरप्रायि धामभिः। दिवः सदांसि बृहती वि तिष्ठस आ त्वेषं वर्तते तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। रात्रि। पार्थिवम्। रजः। पितुः। अप्रायि। धामऽभिः। दिवः। सदांसि। बृहती। वि। तिष्ठसे। आ। त्वेषम्। वर्तते। तमः ॥४७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 47; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (रात्रि) रात्रि ! समस्त प्राणियों को रमण कराने हारी (पार्थिवः) पृथिवी का (रजः) लोक (पितुः) सर्वपालक, पिता परमात्मा के बनाये (धामभिः) तेजों से (अप्रायि) पूर्ण है। और तू (बृहती) बड़ीभारी शक्ति वाली होकर समस्त (दिवः) द्यौलोक या आकाश में वर्त्तमान (सदांसि) समस्त लोकों में (वितिष्ठसे) विविध प्रकार से विराजमान है (त्वेषं) दीप्तिमान चन्द्र, तारागणों से सुशोभित (तमः) अन्धकार (आ वर्त्तते) सर्वत्र व्याप रहा है। समस्त प्राणियों को जीवन देने वाला समष्टि प्रकृति रात्रि है। उस पालक प्रजापति की शक्ति संसार के समस्त पृथिवी लोकों में फैली है और वह जीवोत्पादक शक्ति द्यौलोक अर्थात् तेजोमय सूर्य आदि में भी व्याप्त है। जहां जहां तम या जड़ पदार्थ है वहां साथ साथ ‘तेज’ का अंश भी उसी प्रकार फैला है जैसे रात्रि के अन्धकार में तारे अर्थात् जड़ता की चादर में चेतन जीवों को छिटक रक्खा है। या महान् ब्रह्माण्ड जड़ संसार में ब्रह्म की तीव्र गति, चेतना उसके भीतर व्याप्त है। सोभो रात्रिः। श० ३। ४। ४। १५॥ रात्रिर्वरुणः। ऐ० ४। १०॥ वारुणी रात्रिः। ऐ० ४। १०। यो राजसूयः स वरुणसवः। तै० २। ७। ६। १। राज्ञः एव राजसूयम्। श० ५। १। १। १२। स राजसूयेनेष्ट्वा राजा इति नाम अधत्त। गो० ५। ५। ८। ब्रह्मणो वै रूपमहः। क्षत्रस्य रात्रिः। तै० ३। ९। १४। ३। इत्यादि प्रमाणों से प्रजा की पालक राज्यव्यवस्था का नाम भी ‘रात्रि’ है। उस पक्ष में हे रात्रि ! राजशक्ते ! पालक राजा के तेजों से यह पृथ्वी लोक व्याप्त है। तू महान् होकर (दिवः सदांसि) उच्च ज्ञान प्रकाश के गृहों, भवनों और विद्वानों पर शासन करती है, तेरा चमकीला प्रभाव सर्वत्र व्याप्त है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथ ऋषिः। मन्त्रोक्ता रात्रिर्देवता। १ पथ्याबृहती। २ पञ्चपदा अनुष्टुब् गर्भा परातिजगती। ६ पुरस्ताद् बृहती। ७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। शेषा अनुष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्॥

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