अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 47/ मन्त्र 8
अध॑ रात्रि तृ॒ष्टधू॑ममशी॒र्षाण॒महिं॑ कृणु। हनू॒ वृक॑स्य ज॒म्भया॑स्ते॒नं द्रु॑प॒दे ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑। रा॒त्रि॒। तृ॒ष्टऽधू॑मम्। अ॒शी॒र्षाण॑म्। अहि॑म्। कृ॒णु॒। हनू॒ इति॑। वृक॑स्य। ज॒म्भयाः॑। तेन॑। तम्। द्रु॒ऽप॒दे। ज॒हि॒ ॥४७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अध रात्रि तृष्टधूममशीर्षाणमहिं कृणु। हनू वृकस्य जम्भयास्तेनं द्रुपदे जहि ॥
स्वर रहित पद पाठअध। रात्रि। तृष्टऽधूमम्। अशीर्षाणम्। अहिम्। कृणु। हनू इति। वृकस्य। जम्भयाः। तेन। तम्। द्रुऽपदे। जहि ॥४७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 47; मन्त्र » 8
विषय - रात्रिरूप ब्रह्मशक्ति और राष्ट्रशक्ति।
भावार्थ -
हे (रात्रि) प्रजा को सुख और दुष्टों को दण्ड देनेहारी राजशक्ते ! (अध) और तू, (तृष्टधूमम्) तृषाकारी, प्यास लगाने वाले, दुःखदायी, धूम या निश्वास लेने वाले (अहिम्) सांप को और सांप के स्वभाव वाले, कुटिल या हत्याकारी खूनी पुरुष को जो (तृष्टधूमम्) तृषाकारी, गले को सुखा देने वाले या घोटने वाले धूमका दूसरों पर प्रयोग करे उसको (अशीर्षाणम्) शिर से रहित (कृणु) करदे। उसका सिर धड़ से अलग करदे। अथवा (अहिम्) सर्प स्वभाव के पुरुष को (तृष्टधूमं) प्यास लगाने वाले धूएं से दण्डित और (अशीर्षाणम्) शिरच्छेदन से दण्डित, विना सिर का करदे। और (वृकस्य) भेड़ियों के और भेड़िये के समान दूसरों का माल चुराकर या पीछे से आक्रमण करने वाले के (हनू) दोनों जबाड़ों को (जम्भय) तोड़ डाल। और (स्तेनम्) परद्रव्य पर डाका डालने वाले (तं) उस डाकू को (द्रुपदे) खूंटे में बांध कर (जहि) दण्ड दे।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘अन्धम्’ इति ह्विटनिकामितः। ‘अन्ध’ इति क्वचित्। ‘अन्धो रात्रितृष्टधूमं’। (तृ० च०) ‘हनो वृकस्य जम्भया द्वेनं नृपते जहि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथ ऋषिः। मन्त्रोक्ता रात्रिर्देवता। १ पथ्याबृहती। २ पञ्चपदा अनुष्टुब् गर्भा परातिजगती। ६ पुरस्ताद् बृहती। ७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। शेषा अनुष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्॥
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