अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
सूक्त - गोपथः, भरद्वाजः
देवता - रात्रिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
अति॒ विश्वा॑न्यरुहद्गम्भी॒रो वर्षि॑ष्ठमरुहन्त॒ श्रवि॑ष्ठाः। उ॑श॒ती रात्र्यनु॒ सा भ॑द्रा॒भि ति॑ष्ठते मि॒त्र इ॑व स्व॒धाभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑। विश्वा॑नि। अ॒रु॒ह॒त्। ग॒म्भी॒रः। वर्षि॑ष्ठम्। अ॒रु॒ह॒न्त॒। श्रवि॑ष्ठाः। उ॒श॒ती। रात्री॑। अनु॑। सा। भ॒द्रा। अ॒भि। ति॒ष्ठ॒ते॒। मि॒त्रःऽइ॑व। स्व॒धाभिः॑ ॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अति विश्वान्यरुहद्गम्भीरो वर्षिष्ठमरुहन्त श्रविष्ठाः। उशती रात्र्यनु सा भद्राभि तिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअति। विश्वानि। अरुहत्। गम्भीरः। वर्षिष्ठम्। अरुहन्त। श्रविष्ठाः। उशती। रात्री। अनु। सा। भद्रा। अभि। तिष्ठते। मित्रःऽइव। स्वधाभिः ॥४९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
विषय - ‘रात्रि’ परम शक्ति का वर्णन।
भावार्थ -
अथवा—(गम्भीरः) गम्भीर, सर्वव्यापक, निगूढ परम मेघ, सबका परम गन्तव्य, महान् पुरुष ही (विश्वानि [विश्वा]) समस्त पदार्थों और लोकों के भी ऊपर (अति [अभि, अधि] असहत्) अधिष्ठातृ रूप से विराजता है। और (श्रविष्ठाः) श्रुति, ब्रह्मज्ञान या ऐश्वर्यवान्, विभूतिसंम्पन्न, युक्त योगी पुरुष उस (वर्षिष्ठम्) सबसे महान्, सबके प्रति आनन्दवर्षण करने हारे परमेश्वर तक (असहन्त) पहुंचते हैं। (उशती) उसी की कामना करने वाली (सा) वह (भद्रा) अति सुखकारिणी (अनु) उसके पीछे पीछे, उसके अनुकूल ही, उसकी वशवर्त्तिनी होकर, अपनी (स्वधाभिः) स्वधा, विश्व को धारण करने की शक्तियों सहित, कामनायुक्त स्त्री जिस प्रकार प्रियतम के पास आजाती है उसी प्रकार (मित्र इव) उसके मित्र के समान होकर (अभि तिष्ठते) उसके प्रति, उसके सन्मुख आ उपस्थित होती है।
गम्भीर राजा सबके ऊपर शासक हो, विद्वान् लोग उसके आश्चय पर रहें। वशकारिणी राजशक्ति अपने धारण सामर्थ्यों से राजा प्रजा के मित्र के समान प्रकट होती है।
अथवा—सायण, ह्विटनी आदि के सम्मत पाठों के अनुसार (अधि विश्वा न्यरुहत् गम्भीरा) गम्भीर रूप रात्रि, सबके अभिगमनीय या अति गम्भीर राजशक्ति, राष्ट्र के समस्त पदार्थों पर गम्भीर रात्रि के समान अपना अधिकार करती है। और वह श्रविष्ठा [शविष्ठा] अति अधिक बल, वीर्य और यश और अन्न से समृद्ध होकर (वर्षिष्ठं द्याम् अरुहत्) सबसे उत्तम प्रकाशमय सूर्य पर जैसे रात्रि आरूढ़ होती है और जिस प्रकार स्त्री अपने उज्ज्वल पति का आश्रय लेती है उसी प्रकार यह भी तेजस्वी बलवान राजा पर आश्रित रहती है। (उशती रात्रिः अनु या स्वधाभिः भद्राभिः वि तिष्ठते) कामनायुक्त स्त्री जिस प्रकार सुखदायी कल्याण प्रवृत्तियों सहित पति के समीप आती है उसी प्रकार वह राजशक्ति मुझ राजा के पास अपनी भद्र, सुखदायी अन्न और परम शक्तियों सहित (मित्र इव) मित्र के समान प्राप्त होती है।
टिप्पणी -
अभिविश्वान्यरुहद् गम्भीरोद् वर्षिष्ठमरुहद् श्रविष्ठा।
उशती रात्र्यवसानो भद्रानि तिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः॥ इति ह्विटनिशोधितः पाठः।
अतिविश्वान्यर्हद् गम्भीरो वर्षिष्ठमर्हति श्रविष्ठा।
उशती रात्रित्र्यनु सा भद्रा वितिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः॥ इति सायणाभिमतः।
अतिविश्वान्यरुहृद् गम्भीरो वर्षिष्ठमरुहन्त श्रविष्ठाः।
उशती रात्र्यनु सा भद्राभि तिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः॥ शं० पा०।
‘अवि’, ‘अविं’, ‘अभि’, ‘अधि’। ‘अरुहत्’, ‘अर्हत्’, ‘अरुहत्’, ‘अरुहत्’। ‘गम्भीरा’, ‘गम्भीरो’। ‘अरुहन्तः’, ‘अरुहत’, ‘अरुहन्त’, ‘अर्हति’ ‘द्या मरुहत’। ‘अश्रमिष्ठाः’, ‘श्रमिष्ठा’, ‘शविष्ठा’। ‘उशतींरात्र्यनुसामद्राहिं’—‘नुसाम-द्राहिं’ ‘अनुसाम-’ ‘द्राहि’, ‘प्राचि’, ‘प्राहिं’ इति नाना पाठाः, इद् वर्षिष्ठ मरुहृद श्रविष्ठा। उशतीरात्र्यवसानभद्राद् इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथो भरद्वाजश्च ऋषी। रात्रिर्देवता। १-५, ८ त्रिष्टुभः। ६ आस्तारपंक्तिः। ७ पथ्यापंक्तिः। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। दशर्चं सूक्तम्॥
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