अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 3
वि चि॑द्वृ॒त्रस्य॒ दोध॑तो॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा। शिरो॑ बिभेद वृ॒ष्णिना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ । चि॒त् । वृ॒त्रस्य॑ । दोध॑त: । वज्रे॑ण: । श॒तऽप॑र्वणा ॥ शिर॑: । बि॒भे॒द॒ । वृ॒ष्णिना॑ ॥१०७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वि चिद्वृत्रस्य दोधतो वज्रेण शतपर्वणा। शिरो बिभेद वृष्णिना ॥
स्वर रहित पद पाठवि । चित् । वृत्रस्य । दोधत: । वज्रेण: । शतऽपर्वणा ॥ शिर: । बिभेद । वृष्णिना ॥१०७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 3
विषय - परमेश्वर।
भावार्थ -
(चित्) जिस प्रकार (दोधतः) जगत् को भय से कंपा देने वाले दुष्ट पुरुष के (शिरः) शिर का राजा (शतपर्वणा) सैकड़ों पौरु वाले (वज्रेण) शस्त्रों से (बिभेद) तोड़ डालता है उसी प्रकार जगत् को कंपाने वाले (वृत्रस्य) सबको आवरण करने वाले समस्त अज्ञान के और प्रकृति के विकार स्वरूप महत् तत्व के (शिरः) शिर, मुख्य भाग को (वृष्णिना) बलवान् (शतपर्वणा) सैकड़ों सामर्थ्यों वाले या सैकड़ों पर्व या काल अवयवों से युक्त कालरूप (वज्रेण) वीर्य से, मेघ को सूर्य के समान (विभेद) छिन्न भिन्न कर देता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—१-३ वत्सः, ४-१२ बृहद्दिवोऽथर्वा, १३-१४ ब्रह्मा, १५ कुत्सः। देवता—१-१२ इन्द्र, १३-१५ सूर्यः। छन्दः—१-३ गायत्री, ४-१२,१४,१५ त्रिष्टुप, १३ आर्षीपङ्क्ति॥
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