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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१५

    प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे। अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । मंहि॑ष्ठाय । बृ॒ह॒ते । बृ॒हत्ऽर॑ये । स॒त्यऽशु॑ष्माय । त॒वसे॑ । म॒तिम् । भ॒रे॒ ॥ अ॒पाम्ऽइ॑व । प्र॒व॒णे । यस्य॑ । दु॒:ऽधर॑म् । राध॑: । वि॒श्वऽआ॑यु । शव॑से । अप॑ऽवृतम् ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मंहिष्ठाय बृहते बृहद्रये सत्यशुष्माय तवसे मतिं भरे। अपामिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । मंहिष्ठाय । बृहते । बृहत्ऽरये । सत्यऽशुष्माय । तवसे । मतिम् । भरे ॥ अपाम्ऽइव । प्रवणे । यस्य । दु:ऽधरम् । राध: । विश्वऽआयु । शवसे । अपऽवृतम् ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    मैं (मंहिष्ठाय) सबसे महान्, सबसे अधिक पूजनीय, (बृहते) सबसे बड़े, (सत्य-शुष्माय) सत्य के बल से युक्त, (तवसे) बलस्वरूप इन्द्र के (बृहद् रये) बड़े भारी वेग के सम्बन्ध में (मतिम्) ज्ञान का (प्रभरे) उपदेश करता हूं। (प्रणवे) नीचे की तरफ़ आते हुए (अपाम्) जलों के भारी बल के समान (यस्य) जिस इन्द्र का (दुर्धरम् राधः) दुर्धर, अदम्य, बल, तीव्र वेग, कार्य करने की शक्ति (विश्वायु) सब ओर को (शवसे) बल कार्य करने के लिये (अपावृतम्) प्रकट होती है। इन्द्र, विद्युत् का वेग ऊंची पोटेंशलिटी से नीची पोटेंशेलिटी को आते हुए इसी प्रकार बहुत अधिक होता है, जैसे ऊंचे स्थानों से नीचे स्थान को बहते हुए जलों का वेग प्रबल होता है उस विद्युत् के उस भारी वेग को वेद ‘दुर्धर राधस्’ कहता है। उसका प्रयोग सब प्रकार के बल कार्यों में प्रकट किया जा सकता है। राजा के पक्ष में—उस महान्, सत्य पराक्रमी, बलशाली के बड़े वेग के कार्य के ज्ञानका उपदेश करता हूं। उसका (राधः) साधन बल भी जलप्रपात के समान अदम्य है। वह सबके बल के लिये प्रकट होता है। परमात्मा के पक्ष में भी स्पष्ट है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतमः ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्।

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