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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१५

    अ॒स्मै भी॒माय॒ नम॑सा॒ सम॑ध्व॒र उषो॒ न शु॑भ्र॒ आ भ॑रा॒ पनी॑यसे। यस्य॒ धाम॒ श्रव॑से॒ नामे॑न्द्रि॒यं ज्योति॒रका॑रि ह॒रितो॒ नाय॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । भी॒माय॑ । नम॑सा । सम् । अ॒ध्व॒रे । उष॑: । न । शु॒भ्रे॒ । आ । भ॒र॒ । पनी॑यसे ॥ यस्य॑ । धाम॑ । अव॑से । नाम॑ । इ॒न्द्रि॒यम् । ज्योति॑: । अका॑रि । ह॒रित॑: । न । अय॑से ॥१५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मै भीमाय नमसा समध्वर उषो न शुभ्र आ भरा पनीयसे। यस्य धाम श्रवसे नामेन्द्रियं ज्योतिरकारि हरितो नायसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । भीमाय । नमसा । सम् । अध्वरे । उष: । न । शुभ्रे । आ । भर । पनीयसे ॥ यस्य । धाम । अवसे । नाम । इन्द्रियम् । ज्योति: । अकारि । हरित: । न । अयसे ॥१५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे ज्ञानी पुरुष (पनीयसे) व्यवहार में लाने योग्य (अस्मै भीमाय) इस अति भयंकर विद्युत् को (नमसा) वश करने के उपाय से (उषः न) दाहक अग्नि या तेज के समान (अध्वरे शुभ्रे सम् आभर) अहिंसाजनक, सौम्य, अति दीप्त, प्रकाश के कार्य में प्रयोग कर। (यस्य धाम) जिसका धारण सामर्थ्य या तेज (श्रवसे) शब्द श्रवण के कार्य के लिये और जिसका (नाम) उपाय से वश कर लेना (इन्द्रियम्) अति बलजनक है, (न*) और (हरितः अयसे) दिशाओं में फैलने के लिये (ज्योतिः अकारि) प्रकाश भी उत्पन्न किया जाता है। अर्थात् विद्युत् के प्रचण्ड शक्ति को उपाय से अग्नि के समान सौम्य प्रकाश में दूर शब्द श्रवण के कार्य में लाओ और उससे दूर तक पहुंचने वाले प्रकाश को भी उत्पन्न करो। ईश्वर और राजा के पक्ष में—हे पुरुष ! (उषो न शुभ्रे अध्वरे) उषाकाल के समान कान्तिमान्, तेजोमय अध्वर, = राष्ट्रपालन रूप कार्य में (पनीयसे भीमाय अस्मै) स्तुतियोग्य, भीम, पराक्रमी इस राजा को (नमसा आभर) अन्नादि सत्कार से पूर्ण कर। (यस्य धाम नाम इन्द्रियं श्रवसे) जिसका तेज, नमनकारी बल और राजोचित तेज सभी कीर्त्ति के लिये है। और (यस्य ज्योतिः हरितः न अयसे अकारि) जिसका प्रकाश मानो दिशाओं तक फैलने के लिये उत्पन्न होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतमः ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्।

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