अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति॑ । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । ह॒री इति॑ । विऽप॑क्षसा । रथे॑ ॥ शोणा॑ । धृ॒ष्णू इति॑ । नृ॒ऽवाह॑सा ॥२६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरी इति । विऽपक्षसा । रथे ॥ शोणा । धृष्णू इति । नृऽवाहसा ॥२६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
विषय - राजा और ईश्वर का वर्णन
भावार्थ -
विद्वान् लोग (अस्य) इसके (रथे) रमण करने योग्य राष्ट्र में रथ के समान (विपक्षसा) विविध पक्षों या मन्तव्यों को स्वीकार करने वाले (काम्या) कान्तिमान् तेजस्वी (हरी) उभयपक्ष के दो ऐसे प्रमुख नेता विद्वानों को (युञ्जन्ति) नियुक्त करें जो (शोणा) वेगवान्, तीव्र बुद्धिमान् (धृष्णू) पर-पक्ष को घर्षण करने में समर्थ और (नृवाहसा) अन्य विद्वान् पुरुषों को अपने पीछे चलाने में समर्थ हों। वे दोनों विवादों, विचारणीय विषयों का निर्णय करके राष्ट्र का संचालन करें। इसके अतिरिक्त युद्ध में दोनों बाजू पर दो प्रधान सेनानायकों को रथ में अश्वों के समान नियुक्त किया जाय जो दोनों बाजू के पक्षों (Wings) को संभालें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ शुनःशेपः ४-६ मधुच्छन्दाः ऋषिः। इन्द्रो देवता। १६ गायत्र्यः षडृचं सूक्तम्॥
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