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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३०

    सो अ॑स्य॒ वज्रो॒ हरि॑तो॒ य आ॑य॒सो हरि॒र्निका॑मो॒ हरि॒रा गभ॑स्त्योः। द्यु॒म्नी सु॑शि॒प्रो हरि॑मन्युसायक॒ इन्द्रे॒ नि रू॒पा हरि॑ता मिमिक्षिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । अ॒स्य॒ । वज्र॑: । हरि॑त: । य: । आ॒य॒स: । हरि॑: । निका॑म: । हरि॑: । आ । गभ॑स्त्यो: ॥ द्यु॒म्नी । सु॒ऽशि॒प्र: । हरि॑मन्युऽसायक: । इन्द्रे॑ । नि । रू॒पा । हरि॑ता । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ ।३०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सो अस्य वज्रो हरितो य आयसो हरिर्निकामो हरिरा गभस्त्योः। द्युम्नी सुशिप्रो हरिमन्युसायक इन्द्रे नि रूपा हरिता मिमिक्षिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । अस्य । वज्र: । हरित: । य: । आयस: । हरि: । निकाम: । हरि: । आ । गभस्त्यो: ॥ द्युम्नी । सुऽशिप्र: । हरिमन्युऽसायक: । इन्द्रे । नि । रूपा । हरिता । मिमिक्षिरे ।३०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (अस्य) इस इन्द्र, राजा का (यः) जो (आयसः) लोहे का बना हुआ (हरितः) नीला (वज्रः) खड्ग है (सः) वही (निकामः) सर्वथा मनोहर (हरिः) वह शत्रुओं के प्राणहर होने से ‘हरि’ कहे जाने योग्य है। तू भी हे इन्द्र (हरिः) शूरवीर, वेगवान् तू (गभस्त्योः) अपने हाथों में (आ) उसको लेता है। और इस राजा का (हरिमन्युसायकः) शत्रु के मद हरण करने वाला ‘मन्यु’ रूप बाण भी (द्युम्नी) अति तेजस्वी और (सुशिप्रः) उत्तम वेग वाला है। (इन्द्रे) इन्द्र के आश्रय ही (हरिता रूपा) शत्रु नाशक नाना पदार्थ भी (वि मिमिक्षिरे) सर्व प्रकार से बनाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः-बरुः सर्वहरिर्वा। देवता-इन्द्रः। छन्दः-गायत्री। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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