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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३०

    प्र ते॑ म॒हे वि॒दथे॑ शंसिषं॒ हरी॒ प्र ते॑ वन्वे व॒नुषो॑ हर्य॒तं मद॑म्। घृ॒तं न यो हरि॑भि॒श्चारु॒ सेच॑त॒ आ त्वा॑ विशन्तु॒ हरि॑वर्पसं॒ गिरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । म॒हे । वि॒दथे॑ । शंसि॒ष॒म् । ह॒री इति॑ । ते॒ । व॒न्वे॒ । व॒नुष॑: । ह॒र्य॒तम् । मद॑म् ॥ घृ॒तम् । न । य: । हरि॑ऽभि: । चारु॑ । सेच॑ते । आ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । हरि॑ऽवर्पसम् । गिरि॑: ॥३०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते महे विदथे शंसिषं हरी प्र ते वन्वे वनुषो हर्यतं मदम्। घृतं न यो हरिभिश्चारु सेचत आ त्वा विशन्तु हरिवर्पसं गिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । महे । विदथे । शंसिषम् । हरी इति । ते । वन्वे । वनुष: । हर्यतम् । मदम् ॥ घृतम् । न । य: । हरिऽभि: । चारु । सेचते । आ । त्वा । विशन्तु । हरिऽवर्पसम् । गिरि: ॥३०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (महे) बड़े भारी (विदथे) संग्राम के अवसर पर हे राजन् ! (ते हरी) तेरे हरणशील वेगवान् अश्वों की और उत्साह और पराक्रम की (प्रशंसिषम्) मैं प्रशंसा करूं। और (वनुषः) शत्रु के नाशकारी (ते) तेरे (हर्यतं) कमनीय, सुन्दर (मदम्) आनन्द उत्सव का (प्रवन्वे) अच्छी प्रकार आनन्द लाभ करूं। (यः) जो (हरिभिः) ज्ञानवान् पुरुष के साथ आकर (घृतं न) मेघ जिस प्रकार तीव्र वायुओं सहित आकर जल बरसाता है उसी प्रकार जल के समान शान्तिप्रद एवं घृत के समान पुष्टिप्रद अन्न आदि (चारु) नाना सुन्दर भोग्य पदार्थ (आ सेचते) प्रदान करता है। (हरिवर्पसम्) हरिस्वरूप, सुन्दर कमनीय रूप शोभा से युक्त (त्वा) तुझे (गिरः) समस्त स्तुतियां (आ विशन्तु) प्राप्त हों।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः-बरुः सर्वहरिर्वा। देवता-इन्द्रः। छन्दः-गायत्री। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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