Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 41

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४१

    इन्द्रो॑ दधी॒चो अ॒स्थभि॑र्वृ॒त्राण्यप्र॑तिष्कुतः। ज॒घान॑ नव॒तीर्नव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । द॒धी॒च: । अ॒स्थऽभि॑: । वृ॒त्राणि॑ । अप्र॑तिऽस्कुत: ॥ ज॒घान॑ । न॒व॒ती: । नव॑ ॥४१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः। जघान नवतीर्नव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । दधीच: । अस्थऽभि: । वृत्राणि । अप्रतिऽस्कुत: ॥ जघान । नवती: । नव ॥४१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 41; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् आत्मा (दधीचः अस्थभिः) ध्यानशील मन या वीर्य धारण में समर्थ शरीर की (अस्थभिः) रोगादि विघ्नों को दूर फेंकने वाली शक्तियों से (अप्रतिष्कुतः) किसी से भी पराजित न होकर (नव नवतीः) ९९ (वृत्राणि) परिवर्तनशील वर्षों को (जघान = गच्छति) व्यतीत करता है। अर्थात् यह जीव ध्यान योग से और उत्तम शरीर के बल वीर्य की रक्षा से ९९ वर्ष व्यतीत कर १०० वर्ष का आयु व्यतीत करता है। अथवा—योग पक्ष में—(इन्द्रः) इन्द्र, आत्मा (दधीचः) ध्यान द्वारा प्राप्तव्य प्रभु की (अस्थभिः) तमोनाशक शक्तियों द्वारा (अप्रतिष्कुतः) किसी से पराजित न होकर (नव नवतीः = ९ x ९०= १८०) १८० (वृत्राणि) ज्ञान के आवरणकारी विघ्नों का (जघान) नाश करता है। आत्मा की शक्ति प्राकृतिक तीन गुणों के भेद से तीन प्रकार की। त्रिकाल भेद से ९ प्रकार की। प्रभाव, मन्त्र, उत्साह इन तीन शक्ति भेद से २७ प्रकार की। पुनः सत्व, रजस्, तमस् इन तीनों के सम विषम भेद से ८१ प्रकार की, दश दिशा भेद से ९८० प्रकार की होजाती है। इतनी शक्तियों से आत्मा इतनी ही व्युत्थान वृत्तियों का नाश करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top