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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
अत्राह॒ गोर॑मन्वत॒ नाम॒ त्वष्टु॑रपी॒च्यम्। इ॒त्था च॒न्द्रम॑सो गृ॒हे ॥
स्वर सहित पद पाठअत्र॑ । अह॑ । गो: । अ॒म॒न्व॒त॒ । नाम॑ । त्वष्टु॑: । अ॒पी॒च्य॑म् ॥ इ॒त्था । च॒न्द्रम॑स: । गृ॒हे ॥४१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम्। इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥
स्वर रहित पद पाठअत्र । अह । गो: । अमन्वत । नाम । त्वष्टु: । अपीच्यम् ॥ इत्था । चन्द्रमस: । गृहे ॥४१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
विषय - आत्मा।
भावार्थ -
जिस प्रकार (अत्र) इस (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमा के गृह, लोक में (त्वष्टुः) उत्पादक सूर्य के (गोः) प्रकाश किरण का (अपीच्यम्) दूर गया हुआ अंश ही (नाम) विद्यमान है उसी प्रकार (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमा के स्थान में अर्थात् आल्हादजनक सोम चक्र में भी (त्वष्टुः) त्वष्टा ज्ञान के नाशक आत्मा रूप सूर्य के (गोः) प्रकाशक (अपीच्यं नाम) सुगुप्त, स्वरूप प्राप्त है (इत्था) इस प्रकार (अत्र) इस विषय में विद्वान्गण (अमन्वत) जानते हैं।
गृहस्थ पक्ष में—(अत्र ह चन्द्रमसः गृहे) इस शरीर में चन्द्रमा अर्थात् आह्लादजनक के मार्ग में (त्वष्टुः गोः) संगमकारी वीर्यवान्, त्वष्टा, विधाता पुरुष का ही (अपीच्यम् नाम) वीर्य रूप से प्राप्त अंश है जो पुत्ररूप से उत्पन्न होता है। (इत्था अमन्वत) ऐसा ही विद्वान मानते हैं। इसका औपनिषादिक विवरण देखो साम० सं० १४७॥
अथवा योगियों के पक्ष में—(अत्र ह चन्द्रमसः गृहे) इस सोम चक्र में (गोः त्वष्टुः) व्यापक सर्वजगत् के कर्त्ता परमेश्वर के (अपीच्यं नाम) भीतर छुपे या अति सुन्दर स्वरूप को (इत्था) साक्षात् वह इस प्रकार का है ऐसा निश्चय पूर्वक (अमन्वत) ज्ञान करते हैं, साक्षात् करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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