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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
अ॒यमु॑ ते॒ सम॑तसि क॒पोत॑ इव गर्भ॒धिम्। वच॒स्तच्चि॑न्न ओहसे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ सम् । अ॒त॒सि॒ । क॒पोत॑:ऽइव । ग॒र्भ॒ऽधिम् ॥ वच॑: । तत् । चि॒त् । न॒: । ओ॒ह॒से॒ ॥४५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम्। वचस्तच्चिन्न ओहसे ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ऊं इति । ते सम् । अतसि । कपोत:ऽइव । गर्भऽधिम् ॥ वच: । तत् । चित् । न: । ओहसे ॥४५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
विषय - आत्मा परमात्मा
भावार्थ -
(अयम् उं ते) यह साधक आत्मा तेरी ही है। (कपोतः इव) जिस प्रकार (कपोत) कपोत, कबूतर (गर्भधिम्) गर्भ धारण करने में समर्थ कपोती को (सम् अतति) समान रूप होकर प्रेम से उस तक पहुंचता और उससे संग कराता है उसी प्रकार तू हे इन्द्र ! तेरी शक्तिको अपने भीतर धारण करने वाले को (सम अतसि) भली प्रकार प्राप्त हो। और तन्मय हो। (तत् चित्) उसी प्रकार (नः वचः) हमारे वचन को भी (ओहसे) तू प्राप्त हो, उसको उसी प्रकार से प्रेम पूर्वक श्रवण कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - देवरातः शुनः शेष ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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