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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
श॒तानी॑केव॒ प्र जि॑गाति धृष्णु॒या ह॑न्ति वृ॒त्राणि॑ दा॒शुषे॑। गि॒रेरि॑व॒ प्र रसा॑ अस्य पिन्विरे॒ दत्रा॑णि पुरु॒भोज॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तानी॑काऽइव । प्र । जि॒ग॒ति॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । हन्ति॑ । वृ॒त्राणि॑ । दा॒शुषे॑ ॥ गि॒रे:ऽइ॑व । प्र । रसा॑: । अ॒स्य॒ । पि॒न्वि॒रे॒ । दत्रा॑णि । पु॒रु॒ऽभोज॑स: ॥५१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शतानीकेव प्र जिगाति धृष्णुया हन्ति वृत्राणि दाशुषे। गिरेरिव प्र रसा अस्य पिन्विरे दत्राणि पुरुभोजसः ॥
स्वर रहित पद पाठशतानीकाऽइव । प्र । जिगति । धृष्णुऽया । हन्ति । वृत्राणि । दाशुषे ॥ गिरे:ऽइव । प्र । रसा: । अस्य । पिन्विरे । दत्राणि । पुरुऽभोजस: ॥५१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वरोपासना आत्मदर्शन।
भावार्थ -
वह इन्द्र (शतानीक इव) सैकड़ों सेनाओं के स्वामी, सेनापति के समान (प्र जिगाति) सबको विजय करता, अपने वश करता है। और (धृष्णुया) अपनी धर्षणकारिणी शक्ति से (दाशुषे) दानशील पुरुष के (वृत्राणि) विघ्नों को (हन्ति) विनाश करता है। (गिरेः रसाः इव) पर्वत से जिस प्रकार जलों के स्रोत बहते हैं उसी प्रकार (पुरुभोजसः) बहुत से भोग्य ऐश्वर्यों से समृद्ध (अस्य) इसके (दत्राणि) नाना दान प्रदत्त पदार्थ ही (पिन्विरे) प्रजाओं को तृप्त करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रागाथः प्रस्कण्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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