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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 51

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रस्कण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५१

    अ॒भि प्र वः॑ सु॒राध॑स॒मिन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे। यो ज॑रि॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ पुरू॒वसुः॑ स॒हस्रे॑णेव शिक्षति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । व॒: । सु॒ऽराध॑सम् । इन्द्र॑म् । अ॒र्च॒ । यथा॑ । वि॒दे ॥ य: । ज॒रि॒तृभ्य॑: । म॒घऽवा॑ । पु॒रु॒ऽवसु॑: । स॒हस्रे॑णऽइव । शिक्ष॑ति ॥५१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्र वः सुराधसमिन्द्रमर्च यथा विदे। यो जरितृभ्यो मघवा पुरूवसुः सहस्रेणेव शिक्षति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्र । व: । सुऽराधसम् । इन्द्रम् । अर्च । यथा । विदे ॥ य: । जरितृभ्य: । मघऽवा । पुरुऽवसु: । सहस्रेणऽइव । शिक्षति ॥५१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 51; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे पुरुष ! (सुराधसम्) उत्तम ऐश्वर्य सम्पन्न उस (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् आत्मा को तू (अभि प्रवः) सब प्रकार से वरण कर। उसी की इच्छा कर। और (यथा विदे) जिस प्रकार तू उसे जान पावे उसी प्रकार से उसकी (अभि प्र अर्च) भली प्रकार उपासना कर। (यः) जो (मघवा) ऐश्वर्यवान् (पुरुवसुः) समस्त लोकों, देहों और इन्द्रियों में वास करने वाला (जरितृभ्यः) स्तोता, विद्वान् पुरुषों को (सहस्रेण इव) मानो हज़ारों प्रकारों से (शिक्षति) दान करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रागाथः प्रस्कण्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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