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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 51

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 51/ मन्त्र 4
    सूक्त - पुष्टिगुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५१

    श॒तानी॑का हे॒तयो॑ अस्य दु॒ष्टरा॒ इन्द्र॑स्य स॒मिषो॑ म॒हीः। गि॒रिर्न भु॒ज्मा म॒घव॑त्सु॑ पिन्वते॒ यदीं॑ सु॒ता अम॑न्दिषुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तऽअ॑नीका: । हे॒तय॑: । अ॒स्य॒ । दु॒स्तरा॑ । इन्द्र॑स्य । स॒म्ऽइष॑: । म॒ही: ॥ गि॒रि: । न । भु॒ज्मा । म॒घव॑त्ऽसु । पि॒न्व॒ते॒ । यत् । ई॒म् । सु॒ता: । अम॑न्दिषु: ॥५१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतानीका हेतयो अस्य दुष्टरा इन्द्रस्य समिषो महीः। गिरिर्न भुज्मा मघवत्सु पिन्वते यदीं सुता अमन्दिषुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतऽअनीका: । हेतय: । अस्य । दुस्तरा । इन्द्रस्य । सम्ऽइष: । मही: ॥ गिरि: । न । भुज्मा । मघवत्ऽसु । पिन्वते । यत् । ईम् । सुता: । अमन्दिषु: ॥५१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 51; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (अस्य इन्द्रस्य) इस परमेश्वर के (शतानीकाः हेतयः) सैकड़ों मुख वाले, सैकड़ों ओर को जाने वाले शास्त्रास्त्र (दुस्तराः) दुस्तर अजेय हैं, और (इन्द्रस्य) उस महान् ऐश्वर्यवान की (महीः) बड़ी (समिषः) इच्छाएं, प्रेरक शक्तियां भी हैं (यद ईम्) जब भी (सुताः) नाना ऐश्वर्यमय पदार्थ (अमन्दिषुः) उसको तृप्त करते हैं उसका आनन्दरस प्रवाहित करते हैं तब वह (भुज्मा गिरिः नः) नाना भोग्य पदार्थों से सम्पन्न पर्वत या मेघ के समान (मघवत्सु) ऐश्वर्यवानों को (पिन्वते) वे समस्त ऐश्वर्य पदार्थ तृप्त करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रागाथः प्रस्कण्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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