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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-५६

    मदे॑मदे॒ हि नो॑ द॒दिर्यू॒था गवा॑मृजु॒क्रतुः॑। सं गृ॑भाय पु॒रु श॒तोभ॑याह॒स्त्या वसु॑ शिशी॒हि रा॒य आ भ॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मदे॑ऽमदे । हि । न॒: । द॒दि: । यू॒था । गवा॑म् । ऋ॒जु॒ऽक्रतु॑: ॥ सम् । गृ॒भा॒य॒ । पु॒रु । श॒ता । उ॒भ॒या॒ह॒स्त्या । वसु॑ । शि॒शी॒हि । रा॒य: । आ । भ॒र॒ ॥५६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मदेमदे हि नो ददिर्यूथा गवामृजुक्रतुः। सं गृभाय पुरु शतोभयाहस्त्या वसु शिशीहि राय आ भर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मदेऽमदे । हि । न: । ददि: । यूथा । गवाम् । ऋजुऽक्रतु: ॥ सम् । गृभाय । पुरु । शता । उभयाहस्त्या । वसु । शिशीहि । राय: । आ । भर ॥५६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 56; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे इन्द्र ! तू (ऋजुक्रतुः) अति सरल, सत्य, उत्तम, अर्जन योग्य ज्ञान, बल और क्रिया से सम्पन्न होकर (नः) हमें (गवाम्) इन्द्रियों और गौ आदि पशुओं के (यूथा) समूहों को (ददिः) प्रदान करता है। तू (पुरुशता) बहुत से सैकड़ों पालक ऐश्वर्यों को (सं गृभाय) संग्रह कर। (उभया हस्त्या) दोनों हाथों से भर भर कर (वसु शिशीहि) ऐश्वर्य प्रदान कर। (रायः आ भर) हमें नाना धन सम्पदाएं प्राप्त करा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥

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