अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से। वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒दय॑स्व । सु॒ते । सचा॑ । शव॑से । शू॒र॒ । राध॑से ॥ वि॒द्म । हि । त्वा॒ । पु॒रु॒ऽवसु॑म् । उप॑ । कामा॑न् । स॒सृ॒ज्महे॑ । अथ॑ । न॒: । अ॒वि॒ता । भ॒व॒ ॥५६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
मादयस्व सुते सचा शवसे शूर राधसे। विद्मा हि त्वा पुरूवसुमुप कामान्त्ससृज्महेऽथा नोऽविता भव ॥
स्वर रहित पद पाठमादयस्व । सुते । सचा । शवसे । शूर । राधसे ॥ विद्म । हि । त्वा । पुरुऽवसुम् । उप । कामान् । ससृज्महे । अथ । न: । अविता । भव ॥५६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 56; मन्त्र » 5
विषय - दानशील ईश्वर।
भावार्थ -
हे (शूर) शूरवीर ! इन्द्र सर्वशक्तिमान् शत्रुनाशक ! तू (सुते) अपने इस उत्पन्न जगत् में (शवसे) अपने महान् बल और (राधसे) अपने महान् ऐश्वर्य के कारण तू (सचा) सबको एक काल में या नित्य ही (मादयस्व) आनन्द से तृप्त और हर्षित करने में समर्थ हो। (त्वा) तुझ (पुरुवसुम्) बड़े ऐश्वर्यों के स्वामी को ही हम (विद्महि) भली प्रकार जानें, प्राप्त करें। (कामान्) समस्त कामनाओं को (त्वा उपसमृज्महे) तेरे ही पर छोड़ते हैं। (अथ नः) और अब हमारा तु ही (अविता भव) रक्षक हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
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