Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 68

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 8
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६८

    अ॒स्य पी॒त्वा श॑तक्रतो घ॒नो वृ॒त्राणा॑मभवः। प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य॒ । पी॒त्वा । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । घ॒न: । वृ॒त्राणा॑म् । अ॒भ॒व॒: । प्र ॥ आ॒व॒: । वाजे॑षु । वा॒ज‍िन॑म् ॥६८.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभवः। प्रावो वाजेषु वाजिनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । पीत्वा । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । घन: । वृत्राणाम् । अभव: । प्र ॥ आव: । वाजेषु । वाज‍िनम् ॥६८.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    हे (शतक्रतो) सैकड़ों कर्म और प्रज्ञाओं से युक्त राजन् ! विद्वन् ! तू (अस्य) इस राष्ट्र के ऐश्वर्य को (पीत्वा) प्राप्त करके (वृत्राणाम्) विघ्नकारी, एवं नगररोधक शत्रुओं को (घनः) मारने में समर्थ (अभवः) होजाता है। और (वाजेषु) संग्रामों में (वाजिनम्) अन्न और बल वीर्य वाले अपने देश एवं प्रजाजन और वेगवान् अश्वारोही दल को (प्र अवः) उत्तम रीति से रक्षा कर। ज्ञानार्थी के पक्ष में—हे सैकड़ों ज्ञानों को प्राप्त शिष्य ! (अस्य पीत्वा) इस ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करके तू (वृत्राणां) मन को तामस आवरणों से घेरने वाले अज्ञानों का (घनः अभवः) नाशक हो। और (वाजेषु) अन्नादि भोग्य पदार्थों में भी (वाजिनम्) वीर्यसम्पन्न आत्मा को और इन्द्रियगण को (प्र अवः) पालन कर। जितेन्दिय हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top