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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 68

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 7
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्र छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६८

    एमाशुमा॒शवे॑ भर यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॑त॒यन्म॑न्द॒यत्स॑खम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ई॒म् । आ॒शुम् । आ॒शवे॑ । भ॒र॒ । य॒ज्ञ॒ऽश्रि॑य॑म् । नृ॒ऽमाद॑नम् ॥ प॒त॒यत् । म॒न्द॒यत्ऽस॑ख्यम् ॥६८.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत्सखम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । ईम् । आशुम् । आशवे । भर । यज्ञऽश्रियम् । नृऽमादनम् ॥ पतयत् । मन्दयत्ऽसख्यम् ॥६८.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    हे परमेश्वर ! हे आचार्य ! (आशवे) ज्ञानोपदेश ग्रहण करने में तीव्र गति वाले शिष्य को (आशुम्) व्यापक, (यज्ञश्रियम्) आत्मा को शोभा देने वाले या यज्ञ, परमात्मा विषयक (नृमादनम्) मनुष्यों के सुखकारी (पतयत् मन्दयत्सखम्) स्वामित्व या ऐश्वर्यदायक समान मित्रों को भी प्रसन्न करने वाले ऐश्वर्य को (आ भर) प्राप्त करा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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