अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 88/ मन्त्र 3
बृह॑स्पते॒ या प॑र॒मा प॑रा॒वदत॒ आ ते॑ ऋत॒स्पृशो॒ नि षे॑दुः। तुभ्यं॑ खा॒ता अ॑व॒ता अद्रि॑दुग्धा॒ मध्व॑ श्चोतन्त्य॒भितो॑ विर॒प्शम् ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते । या । प॒र॒मा । प॒रा॒ऽवत् । अत॑: । आ । ते॒ । ऋ॒त॒ऽस्पृश॑: । नि । से॒दु॒: ॥ तुभ्य॑म् । खा॒ता: । अ॒व॒ता: । अद्रि॑ऽदुग्धा: । मध्व॑: । श्चो॒त॒न्ति॒ । अ॒भित॑: । वि॒ऽर॒प्शम् ॥८८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पते या परमा परावदत आ ते ऋतस्पृशो नि षेदुः। तुभ्यं खाता अवता अद्रिदुग्धा मध्व श्चोतन्त्यभितो विरप्शम् ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पते । या । परमा । पराऽवत् । अत: । आ । ते । ऋतऽस्पृश: । नि । सेदु: ॥ तुभ्यम् । खाता: । अवता: । अद्रिऽदुग्धा: । मध्व: । श्चोतन्ति । अभित: । विऽरप्शम् ॥८८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 88; मन्त्र » 3
विषय - परमेश्वर सेनापति राजा।
भावार्थ -
हे (बृहस्पते) बृहस्पते ! परमेश्वर ! (या) जो (परमा) सर्वोत्कृष्टं (परावत्) परम ज्ञान की रक्षा करने वाली वेदवाणी है और (अतः) उससे (आ) साक्षात् ज्ञान करनेहारे जो (ऋतस्पृशः) सत्य तत्व को पहुंचने वाले विद्वान् पुरुष (निषेदुः) विराजमान हैं (खाताः अवताः) खने हुए कूपों के समान रस से भरे हुए और (अद्रिदुग्धाः) मेघों या पर्वतों से प्राप्त मधुर रसको धारण करने वाले जलाशय या झरने जिस प्रकार (मध्वः) मधुर जल (श्चोतन्ति) करते हैं उसी प्रकार वे भी (खाताः) तपस्याओं से खने गये, गम्भीर (अवताः) ज्ञान, जल के एक, (अद्रिदुग्धाः) अखण्ड ब्रह्मशक्ति का दोहन करने वाले या मेघ स्वरूप अपने धर्म मेघमय अखण्ड आत्मा के रस दोहन करने वाले होकर (अभितः) सर्वन्न (मध्वः) उस परम मधुर ब्रह्मानन्द रस के (विरष्शम्) महान् राशि को (श्चोतन्ति) झरते, उपदेश करते और वर्षण करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः। बृहस्पतिदेवता। त्रिष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥
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