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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 88

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
    सूक्त - वामदेवः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८८

    यस्त॒स्तम्भ॒ सह॑सा॒ वि ज्मो अन्ता॒न्बृह॒स्पति॑स्त्रिषध॒स्थो रवे॑ण। तं प्र॒त्नास॒ ऋष॑यो॒ दीध्या॑नाः पु॒रो विप्रा॑ दधिरे म॒न्द्रजि॑ह्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । त॒स्तम्भ॑ । सह॑सा । वि । ज्म: । अन्ता॑न् । बृह॒स्पति॑: । त्रि॒ऽस॒ध॒स्थ: । रवे॑ण ॥ तम् । प्र॒त्नास॑: । ऋष॑य: । दीध्या॑ना: । पु॒र: । विप्रा॑ । द॒धि॒रे॒ । म॒न्द्रऽजि॑ह्वम् ॥८८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान्बृहस्पतिस्त्रिषधस्थो रवेण। तं प्रत्नास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । तस्तम्भ । सहसा । वि । ज्म: । अन्तान् । बृहस्पति: । त्रिऽसधस्थ: । रवेण ॥ तम् । प्रत्नास: । ऋषय: । दीध्याना: । पुर: । विप्रा । दधिरे । मन्द्रऽजिह्वम् ॥८८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 88; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (यः) जो परमेश्वर (बृहस्पतिः) बृहती वेदवाणी और बृहत् महान् राष्ट्र और बृहत् महान् ब्रह्माण्ड़ का पालक है और (त्रि पधस्थः) तीनों स्थान, तीनों लोकों में सूर्य के समान स्थित होकर (रवेण) अपने शासन उपदेश से (सहसा) बल पूर्वक (ज्मः) पृथिवी के (अन्तान्) दशों दिशाओं के दूरस्थ प्रदेशों को (वि) विविध प्रकार (तस्तम्भ) थामता है, वश करता है (प्रत्नाः ऋषयः) पूर्व के ऋषि, मन्त्रद्रष्टा (विप्राः) विविध ज्ञानों से पूर्ण मेधावी लोग (मन्द्रजिह्वम्) आनन्द जनक प्राप्ति युक्त वचन वाले, सुखप्रद दीप्ति से युक्त उसको (दीध्यानाः) ध्यान करते हुए या धारण करते हुए (पुरः दधिरे) अपने आगे उपास्य रूप से और प्रमाण रूप साक्षी रूप या अध्यक्ष रूप से स्थापित करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः। बृहस्पतिदेवता। त्रिष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥

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