अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 8
त्वमि॑न्द्राभि॒भूर॑सि॒ विश्वा॑ जा॒तान्योज॑सा। स विश्वा॒ भुव॒ आभ॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि॒ऽभू: । अ॒सि॒ । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । ओज॑सा ॥ स: । विश्वा॑: । भुव॑: । आ । अ॒भ॒व॒: ॥९३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्राभिभूरसि विश्वा जातान्योजसा। स विश्वा भुव आभवः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । अभिऽभू: । असि । विश्वा । जातानि । ओजसा ॥ स: । विश्वा: । भुव: । आ । अभव: ॥९३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 8
विषय - ईश्वर स्तुति।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (ओजसा) अपने पराक्रम से (विश्वा जातानि) समस्त उत्पन्न लोकों में (अभिभूः) व्यापक, उनका वशीकर्ता है। (सः) वह परमेश्वर ही (विश्वा भुवः) समस्त पदार्थों के उत्पादक भूमियों को भी गौवों को वृष के समान उत्पादक रूप से (आभवः) सब प्रकार से प्राप्त है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ प्रगाथः ऋषिः। ४-८ देवजामय इन्द्रमातरः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। अष्टर्चं सूक्तम्।
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