अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 10
ये पर्व॑ताः॒ सोम॑पृष्ठा॒ आप॑ उत्तान॒शीव॑रीः। वातः॑ प॒र्जन्य॒ आद॒ग्निस्ते क्र॒व्याद॑मशीशमन् ॥
स्वर सहित पद पाठये । पर्व॑ता: । सोम॑ऽपृष्ठा: । आप॑: । उ॒त्ता॒न॒ऽशीव॑री: । वात॑: । प॒र्जन्य॑: । आत् । अ॒ग्नि: । ते । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒शी॒श॒म॒न् ॥२१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
ये पर्वताः सोमपृष्ठा आप उत्तानशीवरीः। वातः पर्जन्य आदग्निस्ते क्रव्यादमशीशमन् ॥
स्वर रहित पद पाठये । पर्वता: । सोमऽपृष्ठा: । आप: । उत्तानऽशीवरी: । वात: । पर्जन्य: । आत् । अग्नि: । ते । क्रव्यऽअदम् । अशीशमन् ॥२१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 10
विषय - लोकोपकारक अग्नियों का वर्णन ।
भावार्थ -
जन-मारक महाव्याधि और अकालिक मृत्यु के विनाश करने के उपायों को संक्षेप से दिखाते हैं—(ये पर्वताः) जो पर्वत (सोम-पृष्ठाः) सोम जैसी बहुवीर्य ओषधियों को अपनी पृष्ठ पर उत्पन्न करते हैं और जो (आपः) जल (उत्तान-शीवरीः) सर्वदा सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र, इन ज्योतियों में खुले रहते हैं वे हंसोदक अथवा ‘उत्तान’= ऊंचें गण्डशैलों में स्थित हैं जिनमें रोगनाशक गुण हैं और (वातः) प्रचण्ड वायु जो अपने झकोरों से ही हैज़ आदि रोगों को उड़ा ले जाते है और (पर्जन्यः) मेघ जिसके बरसने से दुष्काल दूर हो जाता है, और (अग्निः) अग्नि जिससे यज्ञ और प्रज्वालन से गृह शुद्ध और नीरोग हो जाते हैं (ते) वे उपाय हैं जो (क्रव्य-अदम्) क्रव्य= मानव के अपरिपक्व शरीरों को खाने वाले मृत्यु एवं श्मशानाग्नि को (अशीशमन्) शान्त करते हैं ।
टिप्पणी -
(च०) ‘अशीशमम्’ इति क्वचित् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पुरोनुष्टुप्। २, ३,८ भुरिजः। ५ जगती। ६ उपरिष्टाद्-विराड् बृहती। ७ विराड्गर्भा। ९ निचृदनुष्धुप्। १० अनुष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्।
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