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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - पुरोऽनुष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त

    ये अ॒ग्नयो॑ अ॒प्स्वन्तर्ये वृ॒त्रे ये पुरु॑षे॒ ये अश्म॑सु। य आ॑वि॒वेशौष॑धी॒र्यो वन॒स्पतीं॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒ग्नय॑: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । ये । वृ॒त्रे । ये । पुरु॑षे । ये । अश्म॑ऽसु । य: । आ॒ऽवि॒वेश॑ । ओष॑धी: । य: । वन॒स्पती॑न् । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अग्नयो अप्स्वन्तर्ये वृत्रे ये पुरुषे ये अश्मसु। य आविवेशौषधीर्यो वनस्पतींस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अग्नय: । अप्ऽसु । अन्त: । ये । वृत्रे । ये । पुरुषे । ये । अश्मऽसु । य: । आऽविवेश । ओषधी: । य: । वनस्पतीन् । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    ये (अग्नयः) जो अग्नियां (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर समुद्र में वाडवाग्नि रूप में और जलों उद्रजन के रूप में हैं या विद्युत् रूप में हैं और (ये वृत्रे) जो अग्नियां वृत्र-आवरणकारी मेघ में भी विद्युत् रूप से हैं और (ये) जो (पुरुषे) पुरुषों में ज्ञानरूप से, उत्साह, बल पराक्रम और जठराग्नि रूप से या विद्वान् आत्मा और इन्द्रिय रूप से वर्त्तमान हैं (ये अश्मसु) और जो प्रस्तरों में और (ये) जो (ओषधीः) रोग नाशक वनस्पतियों में रस रूप से और (यः) जो (वनस्पतीन्) वनस्पतियों में (आ-विवेश) प्रविष्ट हैं (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) सब अग्नियों का सब अग्नियों का (एतत्) यह इस प्रकार (हुतम्) उचित प्रयोग (अस्तु) हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पुरोनुष्टुप्। २, ३,८ भुरिजः। ५ जगती। ६ उपरिष्टाद्-विराड् बृहती। ७ विराड्गर्भा। ९ निचृदनुष्धुप्। १० अनुष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्।

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