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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः, सांमनस्यम् छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त

    ज्याय॑स्वन्तश्चि॒त्तिनो॒ मा वि यौ॑ष्ट संरा॒धय॑न्तः॒ सधु॑रा॒श्चर॑न्तः। अ॒न्यो अ॒न्यस्मै॑ व॒ल्गु वद॑न्त॒ एत॑ सध्री॒चीना॑न्वः॒ संम॑नसस्कृणोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्याय॑स्वन्त: । चि॒त्तिन॑: । मा । वि । यौ॒ष्ट॒ । स॒म्ऽरा॒धय॑न्त: । स॑ऽधु॑रा: । चर॑न्त: । अ॒न्य: । अ॒न्यस्मै॑ । व॒ल्गु । वद॑न्त: । आ । इ॒त॒ । स॒ध्री॒चीना॑न् । व॒: । सम्ऽम॑नस: । कृ॒णो॒मि॒ ॥३०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः। अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ज्यायस्वन्त: । चित्तिन: । मा । वि । यौष्ट । सम्ऽराधयन्त: । सऽधुरा: । चरन्त: । अन्य: । अन्यस्मै । वल्गु । वदन्त: । आ । इत । सध्रीचीनान् । व: । सम्ऽमनस: । कृणोमि ॥३०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    हे मनुष्यो ! श्राप लोग (ज्यायस्वन्तः) एक दूसरे से बड़े और श्रेष्ठ गुण सम्पन्न होकर भी (चित्तिनः) समानचित्त होकर (संराधयन्तः) समान कार्य का साधन करते हुए (सधुराः) एक ही प्रकार के भार उठाते हुए, अथवा समान रूप से एक ही धुरा = केन्द्र में बद्ध होकर विचरण करते हुए (मा वि यौष्ट) कभी एक दूसरे से जुदा मत होओ। और (अन्यः अन्यस्मै) एक दूसरे के प्रति (वल्गु वदन्तः) मनोहर वचनों का प्रयोग करते हुए (एत) एक दूसरे से मिलो और आओ (सध्रीचीनान्) समान रूप से एक ही स्थान पर एकत्र हुए (वः) तुम लोगों को मैं (संमनसः) एक ही चित्त और मन वाला (कृणोमि) बनाता हूं। अर्थात् वैसा होने का उपदेश करता हूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। चन्द्रमाः सामनस्यञ्च देवता। १-४ अनुष्टुभः। ५ विराड् जगती। ६ प्रस्तार पंक्तिः। ७ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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