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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 122

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 122/ मन्त्र 5
    सूक्त - भृगु देवता - विश्वकर्मा छन्दः - जगती सूक्तम् - तृतीयनाक सूक्त

    शु॒द्धाः पू॒ता यो॒षितो॑ य॒ज्ञिया॑ इ॒मा ब्र॒ह्मणां॒ हस्ते॑षु प्रपृ॒थक्सा॑दयामि। यत्का॑म इ॒दं अ॑भिषि॒ञ्चामि॑ वो॒ऽहमिन्द्रो॑ म॒रुत्वा॒न्त्स द॑दातु॒ तन्मे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒ध्दा: । पू॒ता: । यो॒षित॑: । य॒ज्ञिया॑: । इ॒मा: । ब्र॒ह्मणा॑म् । हस्ते॑षु । प्र॒ऽपृ॒थक् । सा॒द॒या॒मि॒। यत्ऽका॑म: । इ॒दम् । अ॒भि॒ऽसि॒ञ्चामि॑ । व॒: । अ॒हम् । इन्द्र॑: । म॒रुत्वा॑न् । स: । द॒दा॒तु॒ । तत् । मे॒ ॥१२२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुद्धाः पूता योषितो यज्ञिया इमा ब्रह्मणां हस्तेषु प्रपृथक्सादयामि। यत्काम इदं अभिषिञ्चामि वोऽहमिन्द्रो मरुत्वान्त्स ददातु तन्मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुध्दा: । पूता: । योषित: । यज्ञिया: । इमा: । ब्रह्मणाम् । हस्तेषु । प्रऽपृथक् । सादयामि। यत्ऽकाम: । इदम् । अभिऽसिञ्चामि । व: । अहम् । इन्द्र: । मरुत्वान् । स: । ददातु । तत् । मे ॥१२२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 122; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (इमाः) इन (यज्ञियाः) यज्ञ अर्थात् गृहस्थ यज्ञ का संपादन करने वाली (शुद्धाः पूताः) शुद्ध पवित्र (योषितः) स्त्रियों को (ब्रह्मणाम्) वेद ज्ञानी विद्वानों के (हस्तेषु) हाथों में (प्रपृथक्) पृथक् पृथक् (सादयामि) प्रदान करता हूं। (अहम्) मैं कन्या का पिता (यत्कामः) जिस मनोरथ से (इदम्) इस प्रकार (वः) स्त्री पुरुषों के जोड़े बने हुए तुम दम्पतियों को (अभि षिञ्चामि) जल से छिड़कता हूं। (सः इन्द्रः) वह परमात्मा (मरुत्वान्) समस्त शक्तियों का स्वामी (मे) मेरे (तत्) उस प्रयोजन को (ददातु) प्रदान करे, पूर्ण करे। कन्या के पिता का प्रयोजन योग्य विद्वान् के हाथ कन्यादान करने का यही होता है कि कन्या यशस्विनी होकर उत्तम प्रजा उत्पन्न करे और सुख से रहे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः विश्वकर्मा देवता। १-३ त्रिष्टुभः, ४-५ जगत्यौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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