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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - सविता छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सविता सूक्त

    उ॒र्ध्वा यस्या॒मति॒र्भा अदि॑द्युत॒त्सवी॑मनि। हिर॑ण्यपाणिरमिमीत सु॒क्रतुः॑ कृ॒पात्स्वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वा: । यस्य॑ । अ॒मति॑: । भा: । अदि॑द्युतत् । सवी॑मनि । हिर॑ण्यऽपाणि: । अ॒मि॒मी॒त॒ । सु॒ऽक्रतु॑: । कृ॒पात् । स्व᳡: ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उर्ध्वा यस्यामतिर्भा अदिद्युतत्सवीमनि। हिरण्यपाणिरमिमीत सुक्रतुः कृपात्स्वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वा: । यस्य । अमति: । भा: । अदिद्युतत् । सवीमनि । हिरण्यऽपाणि: । अमिमीत । सुऽक्रतु: । कृपात् । स्व: ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (यस्य) जिस परमदेव की (मतिः) अपरिमित आत्मशक्तिमयी (भाः) कान्ति (सवीमनि) उसके चलाये इस जगत् में (ऊर्ध्वा) सब से ऊंची, सब पर अधिष्ठात्री होकर (अदिद्युतत्) प्रकाशमान है वह (हिरण्य-पाणिः) सब को प्रकाश देने वाला, या प्रकाशमान पिण्डों, सूर्य आदि लोकों को भी अपने हाथ में रखने वाला, (सु क्रतुः) सब से उत्तम ज्ञानवान्, शिल्पी (कृपात्) अपने सामर्थ्य से ही (स्वः) इस सूर्य स्वरूप नक्षत्र संसार को (अमिमित) बनाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। सविता। १, २ अनुष्टुप् छन्दः। ३ त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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