Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
दमू॑ना दे॒वः स॑वि॒ता वरे॑ण्यो॒ दध॒द्रत्नं॑ पि॒तृभ्य॒ आयूं॑षि। पिबा॒त्सोमं॑ म॒मद॑देनमि॒ष्टे परि॑ज्मा चित्क्रमते अस्य॒ धर्म॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठदमू॑ना: । दे॒व: । स॒वि॒ता । वरे॑ण्य: । दध॑त् । रत्न॑म् । दक्ष॑म् । पि॒तृऽभ्य॑: । आयूं॑षि । पिबा॑त् । सोम॑म् । म॒मद॑त् । ए॒न॒म् । इ॒ष्टे । परि॑ऽज्मा । चि॒त् । क्र॒म॒ते॒ । अ॒स्य॒ । धर्म॑णि ॥१५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
दमूना देवः सविता वरेण्यो दधद्रत्नं पितृभ्य आयूंषि। पिबात्सोमं ममददेनमिष्टे परिज्मा चित्क्रमते अस्य धर्मणि ॥
स्वर रहित पद पाठदमूना: । देव: । सविता । वरेण्य: । दधत् । रत्नम् । दक्षम् । पितृऽभ्य: । आयूंषि । पिबात् । सोमम् । ममदत् । एनम् । इष्टे । परिऽज्मा । चित् । क्रमते । अस्य । धर्मणि ॥१५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
विषय - ईश्वर की उपासना।
भावार्थ -
(देवः) प्रकाशमान (सविता) सबका प्रेरक और उत्पादक और सर्वैश्वर्यवान् (वरेण्यः) और सब को वरण करने योग्य, सबका प्रिय प्रभु (दमूनाः) सबको उनके अभिलषित पदार्थों का प्रदान करता है। वह ही (पितृभ्यः) देह, इन्द्रिय मन और अपनी प्रजा, गृह आदि के पालन करने वाले जीवों को (रत्नं) उन के रमण करने योग्य कर्म फल (दक्षं) ज्ञान और (आयूंषि) दीर्घ जीवन (दधात्) प्रदान करता है। (अस्य) इस साक्षात् प्रभु की (धर्मणि) धारण व्यवस्था में रहकर यह जीव (सोमं पिबात्) सोमस्वरूप परमानन्द रस का पान करता है और वह आनन्द रस (एनं) इस जीव को (ममदत्) मस्त कर देता है, अपने में मग्न और मत्त कर लेता है, और वह जीव (परि-ज्मा) सर्वत्र गतिमान्, सर्वाप्तकाम हो कर (इष्टे चित्) उस परम पूज्य, इष्ट, उपास्य प्रभु को (क्रमते) प्राप्त करता, उसमें लीन हो जाता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। सविता। १, २ अनुष्टुप् छन्दः। ३ त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
इस भाष्य को एडिट करें