अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
ईडे॑ अ॒ग्निं स्वाव॑सुं॒ नमो॑भिरि॒ह प्र॑स॒क्तो वि च॑यत्कृ॒तं नः॑। रथै॑रिव॒ प्र भ॑रे वा॒जय॑द्भिः प्रदक्षि॒णं म॒रुतां॒ स्तोम॑मृध्याम् ॥
स्वर सहित पद पाठईडे॑ । अ॒ग्निम् । स्वऽव॑सुम् । नम॑:ऽभि: । इ॒ह । प्र॒ऽस॒क्त: । वि । च॒य॒त् । कृ॒तम् । न॒: । रथै॑:ऽइव । प्र । भ॒रे॒ । वा॒जय॑त्ऽभि: । प्र॒ऽद॒क्षि॒णम् । म॒रुता॑म् । स्तोम॑म् । ऋ॒ध्या॒म् ॥५२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ईडे अग्निं स्वावसुं नमोभिरिह प्रसक्तो वि चयत्कृतं नः। रथैरिव प्र भरे वाजयद्भिः प्रदक्षिणं मरुतां स्तोममृध्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठईडे । अग्निम् । स्वऽवसुम् । नम:ऽभि: । इह । प्रऽसक्त: । वि । चयत् । कृतम् । न: । रथै:ऽइव । प्र । भरे । वाजयत्ऽभि: । प्रऽदक्षिणम् । मरुताम् । स्तोमम् । ऋध्याम् ॥५२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
विषय - आत्म-संयम।
भावार्थ -
मैं (अग्निं) प्रकाशस्वरूप, (स्व-वसुम्) स्व = अपने देह के या आत्मा के भी भीतर वसने वाले उस प्रभु की, (नमोभिः) नमस्कारों द्वारा (ईडे) स्तुति करता हूं। वह (इह) इस संसार में (प्र-सक्तः) अपनी उत्तम शक्ति से सर्वत्र व्यापक रहकर (नः) हमारा (कृतं) किया पुरुषार्थ हमें ही (वि चयत्) नाना प्रकार से प्रदान करता है। संग्राम में (वाजयद्भिः) बल पकड़ते हुए या वेग से जाते हुए (रथैः-इव) रथों से जिस प्रकार नाना देशों को जाता हूं और उन को वश करता हूं उसी प्रकार मैं आत्मा का साधक योगी (प्र-दक्षिणं) स्वयं अति उत्कृष्ट बलशाली (स्तोमं) समूह अर्थात् इन्द्रियगण को (ऋध्याम्) अपने वश करूँ। और उन की शक्ति को बढ़ाऊँ। विजयशील सेनापति के पक्ष में भी उपमा के बल से लगता है। मन्त्र तेत्तिरीय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिता में भी आता है वहां कहीं भी इस मन्त्र का द्यूतक्रीड़ा से सम्बन्ध नहीं है। इसलिये जूए के पक्ष में सायणकृत अर्थ असंगत है।
टिप्पणी -
ऋग्वेदे श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः। (द्वि०) ‘इह प्रसत्तो’ ‘प्रदक्षिणिन् मरुताम्’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कितववधनकामोंगिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १, २, ५, ९ अनुष्टुप्। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, जगती। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्।
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