अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 6
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विजय सूक्त
उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति का॒ले। यो दे॒वका॑मो॒ न धनं॑ रु॒णद्धि॒ समित्तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । प्र॒ऽहाम् । अति॑ऽदीवा । ज॒य॒ति॒ । कृ॒तम्ऽइ॑व । श्व॒ऽघ्नी । वि । चि॒नो॒ति॒ । का॒ले । य: । दे॒वऽका॑म: । न । धन॑म् । रु॒णध्दि॑ । सम् । इत् । तम् । रा॒य: । सृ॒ज॒ति॒ । स्व॒धाभि॑: ॥५२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
उत प्रहामतिदीवा जयति कृतमिव श्वघ्नी वि चिनोति काले। यो देवकामो न धनं रुणद्धि समित्तं रायः सृजति स्वधाभिः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । प्रऽहाम् । अतिऽदीवा । जयति । कृतम्ऽइव । श्वऽघ्नी । वि । चिनोति । काले । य: । देवऽकाम: । न । धनम् । रुणध्दि । सम् । इत् । तम् । राय: । सृजति । स्वधाभि: ॥५२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 6
विषय - आत्म-संयम।
भावार्थ -
(उत) और ‘इन्द्र’ ईश्वर या राजा या ऐश्वर्यवान् जीव ही समस्त प्राणों में (अति-दीवा) अत्यन्त अधिक तेजस्वी क्रियावान्, व्यवहारवान्, आनन्दी, हर्षवान् होने के कारण (प्र-हाम् जयति) अपने मारने वाले को भी जीत लेता है। (काले) उचित समय पर (श्वघ्नी) चतुर द्यूतकार जिस प्रकार (कृतम्-इव) अपने जयप्रद ‘कृत’ नामक अक्ष को खोज लेता है उसी प्रकार वह आत्मा (काले) अपने उचित अवसर में अपने (कृतम्) किये कर्म अर्थात् इष्ट और आपूर्त्त अर्थात् उपकार के कर्मों को (विचिनोति) अपनी सुख प्राप्ति के निमित्त चुनता और करता है। (यः) जो पुरुष (देवकामः) विद्वान् महात्मा, देवतुल्य पुरुषों के निमित्त अपने (धनं) धन को (न रुद्धि) रोके नहीं रखता प्रत्युत उत्तम सज्जन पुरुषों के उपकार तथा उनकी अभिलाषा के अनुकूल व्यय करता है, इन्द्र अर्थात् परमेश्वर (तम् इत्) उसको ही (स्वधाभिः) अपनी दानशक्तियों से (रायः) धन, सम्पत्तियां (सं सृजति) प्रदान करता है। ऋग्वेद में यह मन्त्र इन्द्र की स्तुति में है। सायण ने वहां उत्तम अर्थ करके भी इस स्थल पर इस मन्त्र को भारी जुआरिये पर लगा दिया है।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘अतिदिव्यो जयाति’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कितववधनकामोंगिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १, २, ५, ९ अनुष्टुप्। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, जगती। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्।
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