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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 5
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विजय सूक्त

    अजै॑षं त्वा॒ संलि॑खित॒मजै॑षमु॒त सं॒रुध॑म्। अविं॒ वृको॒ यथा॒ मथ॑दे॒वा म॑थ्नामि ते कृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अजैषम् । त्वा । सम्ऽलिख‍ितम् । अजैषम् । उत । सम्ऽरुधम् । अविम् । वृक:। यथा । मथत् । एव । मथ्नामि । ते । कृतम् ॥५२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजैषं त्वा संलिखितमजैषमुत संरुधम्। अविं वृको यथा मथदेवा मथ्नामि ते कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अजैषम् । त्वा । सम्ऽलिख‍ितम् । अजैषम् । उत । सम्ऽरुधम् । अविम् । वृक:। यथा । मथत् । एव । मथ्नामि । ते । कृतम् ॥५२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    हे प्रतिपक्ष ! राजस और तामसभाव ! (सं-लिखितम्) खूब अच्छी प्रकार शिला पर खुदे हुए लेख के समान हृदय पटल पर अंकित अथवा भूमिमानचित्र के समान आलिखित (उत) और (संरुधम्) हरेक उन्नति के कार्य में मुझे आगे बढ़ने से रोकने वाले, विघ्नकारी बाधक को मैंने अपने आत्मा के बल से (अजैषम्) जीत लिया है। और (यथा) जिस प्रकार (अविम्) भेड़ को (वृकः) भेड़िया (मथद्) पकड़ कर झंझोट डालता है उस प्रकार (ते) तेरे (कृतम्) किए दुष्फल को (मथ्नामि) मैं भी मथ डालूं। अध्यात्मबेदी के लिए दो ही पदार्थ हैं। एक अस्मद्—विषय आत्मा और दूसरा ‘युष्मद् विषय’ संसार। यहां संसार के प्रवर्त्तक अविद्याकृत आवरण को मथ कर तम या वृत पर, जिसको पूर्व मन्त्र में ‘वृत’ कहा है, विजय का प्रत्यक्ष रूप दर्शाया है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कितववधनकामोंगिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १, २, ५, ९ अनुष्टुप्। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, जगती। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्।

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