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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 4
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - विजय सूक्त

    व॒यं ज॑येम॒ त्वया॑ यु॒जा वृत॑म॒स्माक॒मंश॒मुद॑वा॒ भरे॑भरे। अ॒स्मभ्य॑मिन्द्र॒ वरी॑यः सु॒गं कृ॑धि॒ प्र शत्रू॑णां मघव॒न्वृष्ण्या॑ रुज ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । ज॒ये॒म॒ । त्वया॑ । यु॒जा । वृत॑म् । अ॒स्माक॑म् । अंश॑म् । उत् । अ॒व॒ । भरे॑ऽभरे । अ॒स्मभ्य॑म् । इ॒न्द्र॒ । वरी॑य: । सु॒ऽगम् । कृ॒धि॒ । प्र । शत्रू॑णाम् । म॒घ॒ऽव॒न् । वृष्ण्या॑ । रु॒ज॒ ॥५२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमंशमुदवा भरेभरे। अस्मभ्यमिन्द्र वरीयः सुगं कृधि प्र शत्रूणां मघवन्वृष्ण्या रुज ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । जयेम । त्वया । युजा । वृतम् । अस्माकम् । अंशम् । उत् । अव । भरेऽभरे । अस्मभ्यम् । इन्द्र । वरीय: । सुऽगम् । कृधि । प्र । शत्रूणाम् । मघऽवन् । वृष्ण्या । रुज ॥५२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 4

    भावार्थ -

    हे इन्द्र परमेश्वर ! (त्वया) तुझ (युजा) सहायक की सहायता से (वयं) हम (वृतं) आवरणकारी, घेरने वाले तामस आवरण का (जयेम) विजय करें। जिस प्रकार ऐश्वर्यवान् राजा की सहायता से उसके सैनिक अपने नगर को घेरने वाले शत्रु पर विजय प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ईश्वर की सहायता से हम साधकगण आत्मा को घेरने वाले तामस आवरण अथवा राजस इन्द्रियगण को अपने वश करें। हे प्रभो ! (भरे-भरे) प्रत्येक संग्राम में (अस्माकम्) हमारे (अंशम्) व्यापक आत्मा को (उत् अव) उन्नति की तरफ ले जाओ। हे इन्द्र ! (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (वरीयः) सबसे उत्कृष्ट और महान् मोक्ष-पद को भी (सुगम्) सुखसे प्राप्त करने योग्य (कृधि) कर। और (शत्रूणां*) हमारे बल और ज्ञान का नाश करने वाले काम, क्रोध आदि शत्रुओं के (वृष्ण्या) बलों को (प्ररुज) अच्छी प्रकार तोड़ डाल। इस मन्त्र का भी द्यूतक्रीड़ा से कोई सम्बन्ध नहीं। अतः सायण आदि का द्यूतपरक अर्थ असंगत है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    कितववधनकामोंगिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १, २, ५, ९ अनुष्टुप्। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, जगती। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्।

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