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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 70

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - श्येनः छन्दः - पुरःककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त

    अ॑जिराधिरा॒जौ श्ये॒नौ सं॑पा॒तिना॑विव। आज्यं॑ पृतन्य॒तो ह॑तां॒ यो नः॒ कश्चा॑भ्यघा॒यति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒जि॒र॒ऽअ॒धि॒रा॒जौ । श्ये॒नौ । सं॒पा॒तिनौ॑ऽइव । आज्य॑म् । पृ॒त॒न्य॒त: । ह॒ता॒म् । य: । न॒: । क: । च॒ । अ॒भि॒ऽअ॒घा॒यति ॥७३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजिराधिराजौ श्येनौ संपातिनाविव। आज्यं पृतन्यतो हतां यो नः कश्चाभ्यघायति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अजिरऽअधिराजौ । श्येनौ । संपातिनौऽइव । आज्यम् । पृतन्यत: । हताम् । य: । न: । क: । च । अभिऽअघायति ॥७३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 70; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    दूसरे से पाप से अत्याचार करने वाले का और क्या हो सो भी बतलाते हैं। (नः) हमारे (यः) जो (कः च) कोई भी पुरुष (अभि-अघायति) साक्षात् रूप में हम पर पापकर्म, अत्याचार क्रूरता और असत्य दम्भ, गर्व आदि में आकर अपनी बुरी स्वार्थ भरी चेष्टाएं करना चाहता है (पृतन्यतः) सेना-बल से हम पर आक्रमण करते हुए उसके युद्ध के सामर्थ्य, सेना बल का (अजिर-अधिराजौ) अजिर और अधिराज अर्थात् शत्रु का प्रतिस्पर्धी राजा और इससे भी अधिक बलशाली मध्यस्थ राजा, मित्र राजा और पार्ष्णिग्रह दोनों मिल कर (सम्-पात्तिनौ) झपटते हुए दो (श्येनौ इव) बाजों के समान (हतां) विनाश करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। श्येन उत मन्त्रोक्ता देवता॥ १ त्रिष्टुप्। अत्तिजगतीगर्भा जगती। ३-५ अनुष्टुभः (३ पुरः ककुम्मती)॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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