Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 74/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - जातवेदाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
त्वा॒ष्ट्रेणा॒हं वच॑सा॒ वि त॑ ई॒र्ष्याम॑मीमदम्। अथो॒ यो म॒न्युष्टे॑ पते॒ तमु॑ ते शमयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वा॒ष्ट्रेण॑ । अ॒हम् । वच॑सा । वि । ते॒ । ई॒र्ष्याम् । अ॒मी॒म॒द॒म् । अथो॒ इति॑ । य: । म॒न्यु: । ते॒ । प॒ते॒ । तम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । श॒म॒या॒म॒सि॒ ॥७८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वाष्ट्रेणाहं वचसा वि त ईर्ष्याममीमदम्। अथो यो मन्युष्टे पते तमु ते शमयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाष्ट्रेण । अहम् । वचसा । वि । ते । ईर्ष्याम् । अमीमदम् । अथो इति । य: । मन्यु: । ते । पते । तम् । ऊं इति । ते । शमयामसि ॥७८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 74; मन्त्र » 3
विषय - गण्डमाला की चिकित्सा।
भावार्थ -
ईर्ष्या का उपाय।
भा०- पति कहता है। हे पत्नी ! मैं (ते) तेरे हृदय की (ईर्ष्याम्) ईर्ष्या के भाव या दूसरे की उन्नति और कीर्ति को देखकर दिल में पैदा हुई जलन को (त्वाष्ट्रेण) त्वष्टा इन्द्र परमेश्वर या पति के (वचसा) वचनों से, अर्थात् पति-पद पर रहकर उसीके पदके योग्य अपने मधुर वचनों से (वि अमीमदम्)* तृप्त करता हूं दूर करता हूं, या शान्त करता हूं। स्त्री कहती है। हे (पते) स्वामिन् ! पालक नाथ ! प्राणपते ! (अथ) इसके बाद भी (यः) जो (ते) तेरा (मन्युः) क्रोध मेरे प्रति हो (तम् उ) उसको भी (शमयामसि) हम शांत करें।
इस ऋचा के पूर्वार्ध में पत्नि के प्रति पतिका वचन और उत्तरार्ध में पति के प्रति पत्नी का वचन है।
त्वष्टा पशूनां मिथुनानां रूपकृद्रूपपतिः। तै० ३। ८। ११। २॥ त्वष्टा वै रेतः सिक्तं विकरोति। कौ० ३। ९॥ रेतः सिर्क्तिव त्वाष्ट्रः॥ कौ० ११। ६॥ त्वष्टा, पशुओं का या दम्पति जोड़ों का बनाने वाला रूपपति (सब जीव जातियों का स्वामी) है। वही प्रभु माता के गर्भों में समानरूप से सिक्त वीर्य को नाना प्रकार से परिपक्व करके भिन्न रूप का बनाता है। अथवा रेतः-सेचन का कार्य त्वष्टा का है अतः स्वष्टा= प्रजापति और पति।
टिप्पणी -
मद तृप्तियोगे (चुरादिः), मदी हर्षग्लेपनयोः (दिवादिः) मदि मोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु (भ्वादि:), मदी हर्षे (भ्वादि:)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। १, २ अपचित-नाशनो देवता, ३ त्वष्टा देवता, ४ जातवेदा देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें