अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 81/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त
नवो॑नवो भवसि॒ जाय॑मा॒नोऽह्नां॑ के॒तुरु॒षसा॑मे॒ष्यग्र॑म्। भा॒गं दे॒वेभ्यो॒ वि द॑धास्या॒यन्प्र च॑न्द्रमस्तिरसे दी॒र्घमायुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑:ऽनव: । भ॒व॒सि॒ । जाय॑मान: । अह्ना॑म् । के॒तु: । उ॒षसा॑म् । ए॒षि॒ । अग्र॑म् । भा॒गम् । दे॒वेभ्य॑: । वि । द॒धा॒सि॒ । आ॒ऽयन् । प्र । च॒न्द्र॒म॒: । ति॒र॒से॒ । दी॒र्घम् । आयु॑: ॥८६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नवोनवो भवसि जायमानोऽह्नां केतुरुषसामेष्यग्रम्। भागं देवेभ्यो वि दधास्यायन्प्र चन्द्रमस्तिरसे दीर्घमायुः ॥
स्वर रहित पद पाठनव:ऽनव: । भवसि । जायमान: । अह्नाम् । केतु: । उषसाम् । एषि । अग्रम् । भागम् । देवेभ्य: । वि । दधासि । आऽयन् । प्र । चन्द्रम: । तिरसे । दीर्घम् । आयु: ॥८६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 2
विषय - सूर्य और चन्द्र।
भावार्थ -
चन्द्र का वर्णन करते हैं। (जायमानः) प्रकट होता हुआ तू हे चन्द्र ! सदा (नवः नवः) नया ही नया (भवसि) हो जाता है। कला के घटने या बढ़ने से प्रतिदिन चन्द्रबिम्ब में नवीनपन ही दीखता है। और (अह्नाम्) दिनों का तू (केतुः) ज्ञापक है। चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार दिनों की गणना की जाती है, प्रथमा, द्वितीया, तृतीया इत्यादि। हे चन्द्र ! तू (उषसाम्) रात्रियों के समाप्ति और सूर्योदय कालों के (अग्रम्) पूर्व काल में (एषि) आया करता है। और (आयन्) आता हुआ तू (देवेभ्यः) देवगण पृथिवी, जल, समुद्र, वायु इनको और इन्द्रियों को (भागम्) इन इन का विशेष आग (वि दधासि) विशेष रूप से प्रदान करता है। चन्द्रोदय के अवसर पर समुद्र वेला आदि नाना प्रकार के वायुपरिवर्तन, ओषधियों का पोषण, ओस आदि का पड़ना आदि क्रियाएं होती हैं। और इस प्रकार हे (चन्द्रमः) चन्द्रमा ! आल्हादकारी शक्तिवाले ! तू (दीर्घम्) लम्बा (आयुः) जीवन (तिरसे) प्रदान करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। सावित्री सूर्याचन्द्रमसौ च देवताः। १, ६ त्रिष्टुप्। २ सम्राट। ३ अनुष्टुप्। ४, ५ आस्तारपंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥
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