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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 89

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 3
    सूक्त - सिन्धुद्वीपः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दिव्यआपः सूक्त

    इ॒दमा॑पः॒ प्र व॑हताव॒द्यं च॒ मलं॑ च॒ यत्। यच्चा॑भिदु॒द्रोहानृ॑तं॒ यच्च॑ शे॒पे अ॒भीरु॑णम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । आ॒प॒: । प्र । व॒ह॒त॒ । अ॒व॒द्यम् । च॒ । मल॑म् । च॒ । यत् । यत् । च॒ । अ॒भि॒ऽदु॒द्रोह॑ । अनृ॑तम् । यत् । च॒ । शे॒पे । अ॒भीरु॑णम् ॥९४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमापः प्र वहतावद्यं च मलं च यत्। यच्चाभिदुद्रोहानृतं यच्च शेपे अभीरुणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । आप: । प्र । वहत । अवद्यम् । च । मलम् । च । यत् । यत् । च । अभिऽदुद्रोह । अनृतम् । यत् । च । शेपे । अभीरुणम् ॥९४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 3

    भावार्थ -

    जिस प्रकार जलों से मल धोकर बहा दिया जाता है उसी प्रकार हे (आपः) उत्तम ज्ञान और कर्मनिष्ठ आप्त पुरुषो ! आप लोग (इदं) यह (अवद्यम्) निन्दायोग्य मेरे अन्तःकरण के नीच-भाव और (मलं च) मैल, मलिन विचारों को (प्र वहत) बहा डालो, और अन्तःकरण को स्वच्छ कर दो। मेरे मन का अवद्य = निन्दनीय और मलिन कार्य यही है कि (यत्) जो मैं (च) प्रायः (अभि-दुद्रोह) दूसरों के प्रति द्वेष और द्रोह किया करता हूं, और (अतनृम्) असत्य भाषण करता हूं, और (यत् च) जो कुछ मैं (अभीरुणम्*) निर्भय, निरपराधी पुरुष को (शेपे) कठोर वचन कहता हूं, अथवा निर्भय होकर मैं स्वयं दूसरों को बुरा भला कहता हूं, उस मल को (आपः) आप्त वचन और आप्त पुरुष दूर करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    सिन्धुद्वीप ऋषिः। अग्निर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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