अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
यानाव॑ह उश॒तो दे॑व दे॒वांस्तान्प्रेर॑य॒ स्वे अ॑ग्ने स॒धस्थे॑। ज॑क्षि॒वांसः॑ पपि॒वांसो॒ मधू॑न्य॒स्मै ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठयान् । आ॒ऽअव॑ह: । उ॒श॒त: । दे॒व॒ । दे॒वान् । तान् । प्र । ई॒र॒य॒ । स्वे । अ॒ग्ने॒ । स॒धऽस्थे॑ । ज॒क्षि॒ऽवांस॑: । प॒पि॒ऽवांस॑: । मधू॑नि । अ॒स्मै । ध॒त्त॒ । व॒स॒व॒: । वसू॑नि ॥१०२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यानावह उशतो देव देवांस्तान्प्रेरय स्वे अग्ने सधस्थे। जक्षिवांसः पपिवांसो मधून्यस्मै धत्त वसवो वसूनि ॥
स्वर रहित पद पाठयान् । आऽअवह: । उशत: । देव । देवान् । तान् । प्र । ईरय । स्वे । अग्ने । सधऽस्थे । जक्षिऽवांस: । पपिऽवांस: । मधूनि । अस्मै । धत्त । वसव: । वसूनि ॥१०२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
विषय - ऋत्विजों का वरण।
भावार्थ -
हे अग्ने ! अग्नि के समान दुष्टों के संतापक (देव) राजन् ! तू (उशतः) नाना पदार्थों, धन, गौ आदि पशु, आजीविका, दान दक्षिणा आदि के अभिलाषा करने वाले (यान्) जिन (देवानाम्) विद्वान् शिल्पी और गुणी विज्ञ पुरुषों को (आ-अवहः) स्वयं अपने समीप या अपने राज्य में बुलाता है (तान्) उनको (स्वे) अपने अपने (सधस्थे) संघों में रहने की (प्रेरय) प्रेरणा कर। हे (वसवः) राष्ट्र में निवास करने हारे विद्वान् शिल्पी गुणी विज्ञ पुरुषो ! तुम लोग इस राजा के राष्ट्र (जक्षि-वांसः) उत्तम अन्नों को खाते हुए और (मधूनि) मधुर दुग्ध आदि पदार्थों का (पपि वांसः) पान करते हुए (वसूनि) नाना प्रकार के वासयोग्य धन, रत्न, सुवर्ण और मकान आदि को (धत्त) स्वयं धारण करो और राजा को भी प्रदान करो।
टिप्पणी -
‘यां आवहा’ (द्वि० तृ०) ‘पपिवांसश्च विश्वेऽसुं धर्म स्वरातिष्ठातऽनु’ इति यजु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञासम्पूणकामोऽथर्वा ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। १-४ त्रिष्टुभः। ५ त्रिपदार्षी भुरिग् गायत्री। त्रिपात् प्राजापत्या बृहती, ७ त्रिपदा साम्नी भुरिक् जगती। ८ उपरिष्टाद् बृहती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
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