अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - त्रिपदा प्राजापत्या बृहती
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
ए॒ष ते॑ य॒ज्ञो य॑ज्ञपते स॒हसू॑क्तवाकः। सु॒वीर्यः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ष: । ते॒ । य॒ज्ञ: । य॒ज्ञ॒ऽप॒ते॒ । स॒हऽसू॑क्तवाक: । सु॒ऽवीर्य॑: । स्वाहा॑ ॥१०२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः। सुवीर्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठएष: । ते । यज्ञ: । यज्ञऽपते । सहऽसूक्तवाक: । सुऽवीर्य: । स्वाहा ॥१०२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 6
विषय - ऋत्विजों का वरण।
भावार्थ -
हे (यज्ञ-पते) समस्त यज्ञों के स्वामिन् ! (एषः) यह भी महान् (यज्ञः) ब्रह्माण्ड, यह देह और यह आत्मा जिसमें इन्द्रिय मन प्राण आदि संगत हैं अथवा यह यज्ञ अर्थात् जो समाधि काल में तेरा संग लाभ हुआ है (ते) तेरा ही है। यही स्वतः (सहसूक्त-वाकः) सुन्दर सुन्दर स्तुति वचनों, मन्त्रों द्वारा वर्णन किया जाता है। और (सु-वीर्यः) उत्तम बलका देने वाला है। (स्वाहा) बस, यह आत्मा, हे परमात्मन् ! तेरे भीतर अपने को लीन कर देता है।
टिप्पणी -
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ गीता॥
दोनों मन्त्रों का याज्ञिक अर्थ स्पष्ट है।
‘सर्ववीरस्तं जुषस्व स्वाहा’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञासम्पूणकामोऽथर्वा ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। १-४ त्रिष्टुभः। ५ त्रिपदार्षी भुरिग् गायत्री। त्रिपात् प्राजापत्या बृहती, ७ त्रिपदा साम्नी भुरिक् जगती। ८ उपरिष्टाद् बृहती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
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