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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - विराट् सूक्त

    तां वसु॑रुचिः सौर्यवर्च॒सोधो॒क्तां पुण्य॑मे॒व ग॒न्धम॑धोक्।

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । वसु॑ऽरुचि: । सौ॒र्य॒ऽव॒र्च॒स: । अ॒धो॒क् । ताम् । पुण्य॑म् । ए॒व । ग॒न्धम् । अ॒धो॒क् ॥१४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां वसुरुचिः सौर्यवर्चसोधोक्तां पुण्यमेव गन्धमधोक्।

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । वसुऽरुचि: । सौर्यऽवर्चस: । अधोक् । ताम् । पुण्यम् । एव । गन्धम् । अधोक् ॥१४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 5; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    (सा उत् अक्रामत्) वह विराट् ऊपर उठी (सा गन्धर्वाप्सरसः) वह गन्धर्व अप्सराओं के पास (आगच्छत्) आई। (ताम्) उसको (गन्धर्वाप्सरसः) गन्धर्व और अप्सरा गण ने (पुण्यगन्धे एहि इति उपाह्वयन्त) ‘हे पुण्यगन्धे ! आओ’ इस प्रकार सादर बुलाया। (तस्याः) उसका (सौर्यवर्चसः) सूर्य के समान कान्तिमान् (चित्ररथः) चित्ररथ (वत्सः आसीत्) वत्स था। (पुष्करपर्ण) ‘पुष्कर पर्ण’ (पात्रम्) पात्र था। (ताम्) उसको (सौर्यवर्चसः वसुरुचिः) सूर्य के तेज से तेजस्वी वसुरुचि ने (अधोक्) दोहन किया (ताम् पुण्यसेव गन्धम् अधोक्) उससे पुण्य गन्ध को ही प्राप्त किया। (तं पुण्यं गन्धम्) उस पुण्य गन्ध से (गन्धर्वाप्सरसः उपजीवन्ति) गन्धर्व और अप्सरा गण जीवन धारण कर रहे हैं। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार रहस्य को जानता है वह (पुण्यगन्धिः उपजीवनीयो भवति) स्वयं पुण्य गन्धवाला और उनको जीवन देने में समर्थ हो जाता है। वरुण आदित्यो राजा इत्याह। तस्य गन्धर्वा विशः, त इम आसते। इति युवानः शोभनाः उपसमेता भवन्ति। तान् उपदिशति आथर्वणो वेदः। श० १३। ४। २। ७ “सोमो वैष्णवो राजेत्याह। तस्याप्सरसो विशः। त इम आसते। इति युवतयः शोभनाः उपसमेता भवन्ति। ता उपदिशति आंगिरसो वेदः”। श० १३। ४। ३। ८॥ अर्थात् देश के युवक पुरुष ही ‘गन्धर्व’ हैं और नवयुवतियां ‘अप्सरा’ कहाती हैं। सूर्यवर्चस तेजस्वी चित्ररथ यह शरीर है। प्राणों को तृप्त करनेहारे आत्मा ने उस पुण्य गन्धर्व को दोहन किया। वह युवा युवतियों में ही विद्यमान होता है जिससे दाम्पत्य-आकर्षण होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। विराट् देवता। १, १३ चतुष्पादे साम्नां जगत्यौ। १०,१४ साम्नां वृहत्यौ। १ साम्नी उष्णिक्। ४, १६ आर्च्याऽनुष्टुभौ। ९ उष्णिक्। ८ आर्ची त्रिष्टुप्। २ साम्नी उष्णिक्। ७, ११ विराड्गायत्र्यौ। ५ चतुष्पदा प्राजापत्या जगती। ६ साम्नां बृहती त्रिष्टुप्। १५ साम्नी अनुष्टुप्। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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