अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - साम्नी बृहती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तस्याः॒ कुबे॑रो वैश्रव॒णो व॒त्स आसी॑दामपा॒त्रं पात्र॑म्।
स्वर सहित पद पाठतस्या॑: । कुबेर॑: । वै॒श्र॒व॒ण । व॒त्स: । आसी॑त् । आ॒म॒ऽपा॒त्रम् । पात्र॑म् । ॥१४.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्याः कुबेरो वैश्रवणो वत्स आसीदामपात्रं पात्रम्।
स्वर रहित पद पाठतस्या: । कुबेर: । वैश्रवण । वत्स: । आसीत् । आमऽपात्रम् । पात्रम् । ॥१४.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 5;
मन्त्र » 10
विषय - विराड् रूप गौ से ऊर्जा, पुण्य गन्ध, तिरोधा और विष का दोहन।
भावार्थ -
(सा उत् अक्रामत्) वह विराट् ऊपर उठी। (सा इतर जनान्) वह ‘इतर जनों’ के पास आई। (ताम् इतरजनाः तिरोधे एहि इति उपाह्वयन्त) उसको इतरजनों ने ‘हे तिरोधे आओ’ इस प्रकार सादर बुलाया। (तस्याः कुबेरः वैश्रवणः वत्सः आसीत्) उसका कुबेर वैश्रवण वत्स था। (आमपात्रं पात्रम्) आमपात्र पात्र था। (तां रजतनाभिः कौबेरकः अधोक्) उसको ‘कौबेरक रजतनाभि’ दुहा (तां तिरोधाम् एव अधोक्) उससे ‘तिरोधा’=छिपाने की कला को ही प्राप्त किया। (तां तिरोधां इतरजनाः उपजीवन्ति) उस ‘तिरोधा’ से इतरजन जीवन धारण करते हैं। (यः एवं वेद तिरोधत्ते सर्वम् पाप्मानम्) जो इस प्रकार के रहस्य को जान लेता है वह सब पापों को दूर कर देता है। (उपजीवनीयो भवति) और जनों को जीवन धारण कराने में समर्थ होता है।
“कुबेरो वैश्रवणो राजा इत्याह। तस्य रक्षांसि विशः। तानि इमान्यासते। इति सेलगाः पापकृतः उपसमेता भवन्ति। तान् उपदिशति. देवजनविद्या वेदः।” श० १३। ४। ३। १०॥ आर्यजनों से जो इतर अनार्य अर्थात् पापरूप लोग हैं वे इतरजन हैं। जो चोरी डकैती आदि का जीवन बिताते हैं वे स्वर्णरजत से ही बंधे रहते हैं। उस पर ही उनका मन रहता है। वे हरेक वस्तु को छिपा लेने की विद्या में निपुण होते हैं। उनका राजा ‘कुबेर’ है जो पृथ्वी में गड़े खजानों का मालिक समझा जाता है। जो इस रहस्य विद्या को जानता है वह सब पाप कार्यों को छिपा देता है। और लोग उसके बल पर भी वृत्ति करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। विराट् देवता। १, १३ चतुष्पादे साम्नां जगत्यौ। १०,१४ साम्नां वृहत्यौ। १ साम्नी उष्णिक्। ४, १६ आर्च्याऽनुष्टुभौ। ९ उष्णिक्। ८ आर्ची त्रिष्टुप्। २ साम्नी उष्णिक्। ७, ११ विराड्गायत्र्यौ। ५ चतुष्पदा प्राजापत्या जगती। ६ साम्नां बृहती त्रिष्टुप्। १५ साम्नी अनुष्टुप्। षोडशर्चं सूक्तम्॥
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