अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 17
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - त्रिपदा विराड्भुरिग्गायत्री
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
स्रुग्दर्वि॒र्नेक्ष॑णमा॒यव॑नं द्रोणकल॒शाः कु॒म्भ्यो वाय॒व्यानि॒ पात्रा॑णी॒यमे॒व कृ॑ष्णाजि॒नम् ॥
स्वर सहित पद पाठस्रुक् । दर्वि॑: । नेक्ष॑णम् । आ॒ऽयव॑नम् । द्रो॒ण॒ऽक॒ल॒शा: । कु॒म्भ्य᳡: । वा॒य॒व्या᳡नि । पात्रा॑णि । इ॒यम् । ए॒व । कृ॒ष्ण॒ऽअ॒जि॒नम् ॥६.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
स्रुग्दर्विर्नेक्षणमायवनं द्रोणकलशाः कुम्भ्यो वायव्यानि पात्राणीयमेव कृष्णाजिनम् ॥
स्वर रहित पद पाठस्रुक् । दर्वि: । नेक्षणम् । आऽयवनम् । द्रोणऽकलशा: । कुम्भ्य: । वायव्यानि । पात्राणि । इयम् । एव । कृष्णऽअजिनम् ॥६.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 17
विषय - अतिथि-यज्ञ और देवयज्ञ की तुलना।
भावार्थ -
(शूर्पं पवित्रम्) अतिथि के निमित्त अन्न साफ करने के लिये जो छाज काम में लाया जाता है वह यज्ञ में ‘पवित्र’ अर्थात् सोम छानने के लिये ‘दशापवित्र’ नामक वस्त्र खण्ड के समान जानना चाहिये। (तुषाः ऋजीषाः) छाज से फटकते हुए जो अन्न के तुष अलग हो जाते हैं वह यज्ञ में सोम को छानने के बाद प्राप्त फोक के समान हैं। (अभिषवणीः आपः) अतिथि के भोजन बनाने के लिये जो जल प्रयुक्त होते हैं वह यज्ञ में सोम रस में मिलाने योग्य ‘वसतीवरी’ नामक जलधाराओं के समान हैं। (स्रुक् दर्विः) अतिथि का भोजन बनाने के लिये जो कड़छी प्रयुक्त होती है वह यज्ञ में ‘स्रुक्’ या घृतचमस् के समान हैं। (आयवनम् नेक्षणम्) भोजन तैयार करते समय जो दाल आदि चलाने का कार्य किया जाता है वह यज्ञ में सोम-रस को बार बार मिलाने के समान है। (कुम्भ्यः द्रोणकलशाः) खाना पकाने के लिये जो डेगची आदि पात्र हैं वे यज्ञ में सोम रस रखने के लिये द्रोणकलशों के समान हैं। (पात्राणि वायव्यानि) अतिथि को खिलाने के जिये जो थाली, कटोरी आदि पात्र हैं वे यज्ञ में सोमपान करने के निमित्त ‘वायव्य’ पात्रों के समान हैं। और अतिथि के लिये (इयम् एव कृष्णाजिनम्) जो बैठने उठने के लिये वह भूमि है वह यज्ञ में कृष्ण मृगछाला के समान है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ‘सो विद्यात्’ इति षट् पर्यायाः। एकं सुक्तम्। ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिरुत विद्या देवता। तत्र प्रथमे पर्याये १ नागी नाम त्रिपाद् गायत्री, २ त्रिपदा आर्षी गायत्री, ३,७ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, ४ आसुरीगायत्री, ६ त्रिपदा साम्नां जगती, ८ याजुषी त्रिष्टुप्, १० साम्नां भुरिग बृहती, ११, १४-१६ साम्न्योऽनुष्टुभः, १२ विराड् गायत्री, १३ साम्नी निचृत् पंक्तिः, १७ त्रिपदा विराड् भुरिक् गायत्री। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
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