Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 36

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 18
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - भुरिग् जगती स्वरः - निषादः
    3

    दृते॒ दृꣳह॑ मा मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ समी॑क्षन्ताम्।मि॒त्रस्या॒ऽहं चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ समी॑क्षे।मि॒त्रस्य॒ चक्षु॑षा॒ समी॑क्षामहे॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृते॑। दृꣳह॑। मा॒। मि॒त्रस्य॑। मा॒। चक्षु॑षा। सर्वा॑णि। भू॒तानि॑। सम्। ई॒क्ष॒न्ता॒म् ॥ मि॒त्रस्य॑। अ॒हम्। चक्षु॑षा। सर्वा॑णि। भू॒तानि॑। सम्। ई॒क्षे॒। मि॒त्रस्य॑। चक्षु॑षा। सम्। ई॒क्षा॒म॒हे॒ ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृते दृँह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहञ्चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दृते। दृꣳह। मा। मित्रस्य। मा। चक्षुषा। सर्वाणि। भूतानि। सम्। ईक्षन्ताम्॥ मित्रस्य। अहम्। चक्षुषा। सर्वाणि। भूतानि। सम्। ईक्षे। मित्रस्य। चक्षुषा। सम्। ईक्षामहे॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 36; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    व्याखान -

    हे अनन्तबल महावीर ईश्वर ! (दृते) हे दुष्टस्वभावनाशक विदीर्णकर्म, अर्थात् विज्ञानादि शुभ गुणों का नाशक कर्म करनेवाला मुझको मत रक्खो [स्थिर मत करो], किन्तु उससे मेरे आत्मादि को उठाके विद्या, सत्य, धर्मादि शुभगुणों में सदैव स्वकृपासामर्थ्य ही से स्थित करो (दृंह मा) हे परमैश्वर्यवन् भगवन्! धर्मार्थकाममोक्षादि तथा विद्याविज्ञानादि दान से मुझको अत्यन्त बढ़ा (मित्रस्येत्यादि ०)  हे सर्वसुहृदीश्वर, सर्वान्तर्यामिन् ! सब भूत प्राणिमात्र मित्र की दृष्टि से यथावत् मुझको देखें, सब मेरे मित्र हो जाएँ, कोई मुझसे किञ्चिन्मात्र भी वैर-दृष्टि न करे । (मित्रस्याहं चक्षुषत्यादि) हे परमात्मन्! आपकी कृपा से मैं भी निर्वैर होके सब भूतप्राणी और अप्राणी- चराचर जगत् को मित्र की दृष्टि से स्वात्म, स्वप्राणवत् प्रिय जानूँ, अर्थात् (मित्रस्य, चक्षुषेत्यादि)  पक्षपात छोड़के सब जीव - देहधारीमात्र अत्यन्त प्रेम से परस्पर वर्त्तमान करें। अन्याय से युक्त होके किसी पर कभी हम लोग न वर्तें। इस परमधर्म का सब मनुष्यों के लिए परमात्मा ने उपदेश किया है, सबको यही मान्य होने योग्य है ॥ ३ ॥ 

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top