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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 10/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ तू न॑ इन्द्र कौशिक मन्दसा॒नः सु॒तं पि॑ब। नव्य॒मायुः॒ प्र सू ति॑र कृ॒धी स॑हस्र॒सामृषि॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । तु । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । कौ॒शि॒क॒ । म॒न्द॒सा॒नः । सु॒तम् । पि॒ब॒ । नव्य॑म् । आयुः॑ । प्र । सु । ति॒र॒ । कृ॒धि । स॒ह॒स्र॒ऽसाम् । ऋषि॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्रसामृषिम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। तु। नः। इन्द्र। कौशिक। मन्दसानः। सुतम्। पिब। नव्यम्। आयुः। प्र। सु। तिर। कृधि। सहस्रऽसाम्। ऋषिम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 10; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशः, किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे कौशिकेन्द्रेश्वर ! मन्दसानः संस्त्वं नः सुतमापिब, तु पुनः कृपया नो नव्यमायुः प्रसूतिर तथा नोऽस्माकं मध्ये सहस्रसामृषिं कृधि सम्पादय॥११॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। अत्र ऋचि तुनुघमक्षु० इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूपेश्वर (कौशिक) सर्वासां विद्यानामुपदेशे प्रकाशे च भवस्तत्सम्बुद्धौ, अर्थानां साधूपदेष्टर्वा। क्रोशतेः शब्दकर्मणः क्रंशतेर्वा स्यात्प्रकाशयतिकर्मणः साधु विक्रोशयिताऽर्थानामिति वा। (निरु०२.२५) अनेन कौशिकशब्द उक्तार्थो गृह्यते। (मन्दसानः) स्तुतः सर्वस्य ज्ञाता सन्। ऋञ्जिवृधिमन्दि० (उणा०२.८४) अनेन मन्देरसानच् प्रत्ययः। (सुतम्) प्रयत्नेनोत्पादितं प्रियशब्दं स्तवनं वा (पिब) श्रवणशक्त्या गृहाण (नव्यम्) नवीनम्। नवसूरमर्तयविष्ठेभ्यो यत्। (अष्टा०५.४.३६) अनेन वार्त्तिकेन नवशब्दात् स्वार्थे यत्। नव्यमिति नवनामसु पठितम्। (निघं०३.२८) (आयुः) जीवनम् (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (सु) शोभार्थे क्रियायोगे। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (तिर) संतारय। तरतेर्विकरणव्यत्ययेन शः। ॠत इद्धातोरितीकारः। (कृधि) कुरु। अत्र श्रुशुणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसीति हेर्धिर्विकरणाभावः। (सहस्रसाम्) सहस्रं बह्वीर्विद्याः सनोति तम् (ऋषिम्) वेदमन्त्रार्थद्रष्टारं जितेन्द्रियतया शुभगुणानां सदैवोपदेष्टारं सकलविद्याप्रत्यक्षकारिणम्॥११॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः प्रेम्णा विद्योपदेष्टारं जीवेभ्यः सत्यविद्याप्रकाशकं सर्वज्ञं शुद्धमीश्वरं स्तुत्वा श्रावयन्ति, ते सुखपूर्णं विद्यायुक्तमायुः प्राप्यर्षयो भूत्वा पुनः सर्वान् विद्यायुक्तान् मनुष्यान् विदुषः प्रीत्या सम्पादयन्ति॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर परमेश्वर कैसा और मनुष्यों के लिये क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    हे (कौशिक) सब विद्याओं के उपदेशक और उनके अर्थों के निरन्तर प्रकाश करनेवाले (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूप परमेश्वर ! (मन्दसानः) आप उत्तम-उत्तम स्तुतियों को प्राप्त हुए और सब को यथायोग्य जानते हुए (नः) हम लोगों के (सुतम्) यत्न से उत्पन्न किये हुए सोमादि रस वा प्रिय शब्दों से की हुई स्तुतियों का (आ) अच्छी प्रकार (पिब) पान कराइये (तु) और कृपा करके हमारे लिये (नव्यम्) नवीन (आयुः) अर्थात् निरन्तर जीवन को (प्रसूतिर) दीजिये, तथा (नः) हम लोगों में (सहस्रसाम्) अनेक विद्याओं के प्रकट करनेवाले (ऋषिम्) वेदवक्ता पुरुष को भी (कृधि) कीजिये॥११॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अपने प्रेम से विद्या का उपदेश करनेवाला होकर अर्थात् जीवों के लिये सब विद्याओं का प्रकाश सर्वदा शुद्ध परमेश्वर की स्तुति के साथ आश्रय करते हैं, वे सुख और विद्यायुक्त पूर्ण आयु तथा ऋषि भाव को प्राप्त होकर सब विद्या चाहनेवाले मनुष्यों को प्रेम के साथ उत्तम-उत्तम विद्या से विद्वान् करते हैं॥११॥

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    विषय

    फिर परमेश्वर कैसा और मनुष्यों के लिये क्या करता है, इस विषय को इस मन्त्र में प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे कौशिक इन्द्रेश्वर ! मन्दसानः सन् त्वं  नः सुतम् आपिब, तु पुनः कृपया नः नव्यम् आयुः प्र सूतिर तथा नः अस्माकं मध्ये सहस्रसाम् ऋषिं कृधि सम्पादय॥११॥

    पदार्थ

    हे (कौशिक) सर्वासां विद्यानामुपदेशे प्रकाशे च भवस्तत्सम्बुद्धौ=सभी को विद्या या उसके अर्थ का  उत्तम उपदेश करने वाले, (इन्द्रेश्वरः)=सर्वानन्दस्वरूप परमेश्वर, (मन्दसानः) स्तुतः सर्वस्य ज्ञाता सन्=स्तुति की जाते हुए और सर्वज्ञ हैं, (त्वम्)=आप, (नः)=हमें, (सुतम्) प्रयत्नोत्पादितं प्रियशब्दं स्तवनं वा=प्रयत्न से उत्पन्न किये हुए प्रिय शब्द या प्रशंसा, (आ) आ समन्तात्=अच्छी तरह से, (पिब) श्रवणशक्त्या गृहाण=श्रवण शक्ति से गृहण करना, (तु)=परन्तु या तो भी, (पुनः)=पुनः (कृपया)=कृपया, (नः)=हमें, (नव्यम्) नवीनम्=नया, (आयुः)=आयु, (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे=विशेष रूप से, (सू) शोभार्थे क्रियायोगे=शोभायमान रूप से, (तिर) संतारय-तारि तीर्यन्ते= पार कराते हैं, (कृपया)=कृपया, (तथा)=वैसे ही, (नः) अस्माकम्=हमें, (मध्ये)=बीच में, (सहस्रसाम्)=अनेकों, (ऋषिम्)=ऋषियों को, (कृधि) कुरु=कीजिये, (सम्पादय)=प्राप्त करें॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य प्रेम से विद्या के उपदेशक जीवों के लिये सत्यविद्या के प्रकाशक, सर्वज्ञ, शुद्ध, ईश्वर की स्तुति करके श्रवण करते हैं, वे पूर्ण सुखों के प्राप्त करके विद्यायुक्त होते हैं। आयु को प्राप्त करके ऋषि भाव वाले होकर फिर सब विद्यायुक्त विद्वान् मनुष्यों से प्रीतिपूर्वक व्यवहार करते हैं॥११॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (कौशिक) सभी को विद्या या उसके अर्थ का  उत्तम उपदेश करने वाले (इन्द्रेश्वरः) सर्वानन्द स्वरूप परमेश्वर! (मन्दसानः) स्तुति की जाते हुए (त्वम्) आप (नः) हमें (सुतम्) प्रयत्न से की गई प्रशंसा (आ) अच्छी तरह से (पिब) श्रवण शक्ति से गृहण कराइये। (तु) परन्तु (पुनः) पुनः (कृपया) कृपया (नः) हमें (नव्यम्) नये (आयुः) आयु की ओर  (प्र) विशेष रूप से (सू) शोभायमान रूप से (तिर) पार कराते हैं। (कृपया) कृपया (तथा) वैसे ही (नः) हमारे (मध्ये) बीच  (सहस्रसाम्) के अनेकों को (ऋषिम्) ऋषिभाव (सम्पादय+कृधि) प्राप्त कराइये॥११॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। अत्र ऋचि तुनुघमक्षु० इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूपेश्वर (कौशिक) सर्वासां विद्यानामुपदेशे प्रकाशे च भवस्तत्सम्बुद्धौ, अर्थानां साधूपदेष्टर्वा। क्रोशतेः शब्दकर्मणः क्रंशतेर्वा स्यात्प्रकाशयतिकर्मणः साधु विक्रोशयिताऽर्थानामिति वा। (निरु०२.२५) अनेन कौशिकशब्द उक्तार्थो गृह्यते। (मन्दसानः) स्तुतः सर्वस्य ज्ञाता सन्। ऋञ्जिवृधिमन्दि० (उणा०२.८४) अनेन मन्देरसानच् प्रत्ययः। (सुतम्) प्रयत्नेनोत्पादितं प्रियशब्दं स्तवनं वा (पिब) श्रवणशक्त्या गृहाण (नव्यम्) नवीनम्। नवसूरमर्तयविष्ठेभ्यो यत्। (अष्टा०५.४.३६) अनेन वार्त्तिकेन नवशब्दात् स्वार्थे यत्। नव्यमिति नवनामसु पठितम्। (निघं०३.२८) (आयुः) जीवनम् (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (सु) शोभार्थे क्रियायोगे। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (तिर) संतारय। तरतेर्विकरणव्यत्ययेन शः। ॠत इद्धातोरितीकारः। (कृधि) कुरु। अत्र श्रुशुणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसीति हेर्धिर्विकरणाभावः। (सहस्रसाम्) सहस्रं बह्वीर्विद्याः सनोति तम् (ऋषिम्) वेदमन्त्रार्थद्रष्टारं जितेन्द्रियतया शुभगुणानां सदैवोपदेष्टारं सकलविद्याप्रत्यक्षकारिणम्॥११॥
    विषयः- पुनः स कीदृशः, किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे कौशिकेन्द्रेश्वर ! मन्दसानः संस्त्वं नः सुतमापिब, तु पुनः कृपया नो नव्यमायुः प्रसूतिर तथा नोऽस्माकं मध्ये सहस्रसामृषिं कृधि सम्पादय॥११॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्याः प्रेम्णा विद्योपदेष्टारं जीवेभ्यः सत्यविद्याप्रकाशकं सर्वज्ञं शुद्धमीश्वरं स्तुत्वा श्रावयन्ति, ते सुखपूर्णं विद्यायुक्तमायुः प्राप्यर्षयो भूत्वा पुनः सर्वान् विद्यायुक्तान् मनुष्यान् विदुषः प्रीत्या सम्पादयन्ति॥११॥
     

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    विषय

    कौशिक इन्द्र

    पदार्थ

    १. जीव की प्रार्थना को सुनकर 'वृषन्तम' प्रभु कहते हैं कि हे (इन्द्र) - जितेन्द्रिय पुरुष ! हे (कौशिक) - [कुशिक=a ploughshare कुशिकं विन्दति कौशिकः] हल को अपनानेवाले अर्थात् कृषि आदि श्रमसाध्य कर्मों में प्रवृत्तिवाले जीव ! (मन्दसानः) - सदा प्रसन्न रहता हुआ  , शोक - क्रोधादि से क्षुब्ध न होता हुआ तू (तु) - [क्षिप्रम्] शीघ्र ही (नः) - हमारे अथवा हमारी प्राप्ति के साधनभूत इस (सुतम्) - उत्पन्न हुए - हुए सोम को (आ पिब) - सारे शरीर में समन्तात् व्याप्त करने का प्रयत्न कर । सोम की रक्षा के लिए तीन बातें आवश्यक हैं - [क] जितेन्द्रियता [इन्द्र]  , [ख] श्रमसाध्य कर्मों में लगे रहना [कौशिक]  , [ग] सदा प्रसन्न रहना [मन्दसानः] । इस सोमरक्षण से सर्वमहान् लाभ यह है कि यह हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है । 

    २. इस सोम की रक्षा के द्वारा (नव्यम् आयुः) - स्तुत्य  , प्रशंसनीय जीवन को (प्रसुतिर) - [प्रकर्षेण सुष्ठु वर्धय] खूब बढ़ानेवाला हो । सब रोगों के नष्ट होने से तेरा शरीर पूर्ण नीरोग होगा  , वासनाओं के नष्ट हो जाने से मन निर्मल हो आवरणों के दूर होने से ज्ञान - दीप्त होगा और इस प्रकार तेरा जीवन सचमुच प्रशंसनीय - नया - सा बन जाएगा । ३. इस सोम के रक्षण से तू अपने को (सहस्त्रसाम्) - सहस्त्रसंख्याक धनों का सम्भजन करनेवाला तथा (ऋषिम्) - तत्त्वद्रष्टा (कृधि) बना  , अर्थात् सोम की रक्षा के द्वारा तेरी शक्ति की वृद्धि होगी । बढ़ी हुई शक्ति से तू धनों को समुचित रूप से कमानेवाला बनेगा तथा तेरे मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि दीप्त होकर तुझे ऋषि - कोटि में प्रविष्ट करानेवाली होगी । 

    भावार्थ

    भावार्थ - 'जितेन्द्रियता  , श्रमशीलता व मनः प्रसाद' मनुष्य को सोमरक्षण के योग्य बनाते हैं । सोमरक्षण से नीरोगता द्वारा जीवन स्तुत्य बनता है  , मनुष्य की सुपथ से धनार्जन की क्षमता बढ़ती है और वह तत्त्वद्रष्टा बनकर ऋषि कहलाता है । 

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    विषय

    पक्षान्तर में पञ्चकोषयुक्त जीव का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सर्वानन्दकारक ! हे ( कौशिक ) समस्त पदार्थों का यथार्थ उपदेश करने वाले परमेश्वर ! गुरो ! तू मन्दसानः ) ज्ञान प्रकाश से अति उज्वल होकर ( सुतं ) प्रयत्न से उत्पन्न किये ज्ञान-रस का ओषधि रस के समान ( पिब ) पान कर, श्रवण कर, उसका मनन कर और ( नव्यम् ) नये ( आयुः ) जीवन को ( सु प्रतिर ) अधिक बढ़ा । और ( ऋषिम् ) वेदमन्त्रों के अर्थ देखने वाले विद्वान् पुरुष को ( सहस्रसाम् ) सहस्रों ज्ञानों और ऐश्वर्यों को लाभ करने में समर्थ ( कृधि ) कर । अथवा अध्यात्म में—हे ( इन्द्र) हे जीव (कौशिक) पंचकोशों में विराजमान् ! तू ( मन्दसानः ) अति प्रमोदयुक्त और प्रकाशयुक्त होकर ( सुतं ) ब्रह्म रस का पान कर। नये और दीर्घ आयु को प्राप्त कर । और ( ऋषिम् ) प्राण को ( सहस्रसाम् ) सहस्रों वर्षों के जीवन को भोगने अथवा पूर्ण आयु को भोगने वाला बना । ( ऋषिम् ) सहस्रों ज्ञानलाभ कराने वाले तर्क को उत्पन्न कर ।

    टिप्पणी

    सर्वं वै सहस्रम् । शत० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १—३, ५, ६, ७, ९-१२ अनुष्टुभः ॥ भुरिगुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे प्रेमाने विद्येचा उपदेश करणारी असतात, अर्थात जीवांसाठी सर्व विद्यांचा प्रकाश करतात, सदैव पवित्र परमेश्वराची स्तुती करून त्याचा आश्रय घेतात, ती सुखपूर्वक विद्यायुक्त दीर्घायुषी बनून ऋषिभावाने सर्व विद्या शिकणाऱ्यांना प्रेमाने उत्तम उत्तम विद्या शिकवून विद्वान करतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord giver of infinite joy, universal teacher of humanity, come and taste the sweets of our divine celebrations. Create a new and higher life for us, and let a new seer and prophet of a thousand visions and sciences arise among us.

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    Subject of the mantra

    Then how and what does God do for humans, this topic has been explained in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (kauśika)= the best preacher of knowledge or its meaning to all, (indreśvaraḥ)=all blissful God! You,(mandasānaḥ)=being praised, (tvam)=You, (naḥ)=to us, (sutam)=the praise done by efforts, (ā)=properly, (piba)=get obtained with the help of hearing power, (tu)=but, (punaḥ)=again, (kṛpayā)=kindly, (naḥ)=to us, (navyam)=new, (āyuḥ)=age(life), (pra)=in a special way, (sū)=gracefully, (tira)= take across to, (kṛpayā)=kindly, (tathā)=likewise, (naḥ)=our, (madhye)= many among us, (sahasrasām)= to many of, (ṛṣim)=to the seer’s spirit, (sampādaya+kṛdhi)=get obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    O all blissful God! Who is the best preacher of knowledge or its meaning to all. While being praised, kindly accept us by the power of listening well the praise done with efforts. But again kindly let us pass through the new life especially gracefully. In the same way, make many among us attain the seer’s spirit.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those men, who with love listen to the praises of God, the Omniscient, pure, the promulgator of the truth for living beings, the preachers of knowledge, they become enlightened after attaining complete happiness. Having attained life, obtaining seer’s spirit, he treats all learned human beings with love.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is God and what does He do is taught in the 11th Mantra-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God All Bliss, Instructor of all true knowledge and sciences, being praised by us, listen to our sweet words of praise and prayer. Kindly prolong the life that merits commendation. Create among us a Rishi who is the teacher of various sciences, is a seer of the Vedic verses, being a man of self control is always instructor of noble virtues and a man of realization.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (कौशिक:) सर्वासां विद्यानामुपदेशे च भवः तत् सम्बुद्धौ अर्थानां साधूपदेष्टर्वा क्रोशतेः शब्द कर्मणः क्रंसतेर्वास्यात् प्रकाशयतिकर्मणः साधु विक्रोशयिताऽर्थाना मितिवा (निरुक्ते २. २५) अनेन कौशिकशब्द उक्तार्थो गृह्यते ॥ = Instructor or revealer of true knowledge. (सहस्रसाम् ) सहस्रं बह्वीर्विद्याः सनोति तम् = Giver of the knowledge of various sciences. (ऋषिम् ) वेदमन्त्रार्थ द्रष्टारम्, जितेन्द्रियतया शुभगुणानां सदैवोपदेष्टारम्, सकलविद्याप्रत्यक्षकारिणम् । = Seer or sage.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who having glorified God with love Who. is the Supreme Teacher of all wisdom to the souls, the Revealer of all true knowledge and Omniscient, teach others, attain long and happy life and becoming Rishis lovingly make all people full of true knowledge.

    Translator's Notes

    We have given above the interpretation of the term कौशिक (Kaushika) as given by Rishi Dayananda quoting the authority of Shri Yaskacharya well-known etymologist of ancient India. The main principle of the Vedic interpretation is that सर्वाणि नामानि आख्वातजानि i. e. All words in the Vedas are derived from the roots and are Yougikas or general nouns denoting particular attributes. In the Meemansa Shastra Maharshi Jaimini has said the same thing. आख्या प्रवचनात् । परन्तु श्रुति सामान्यमात्रम् (मीमां० 1.३१)। It is wrong therefore on the part of Sayanacharya, Skanda Swami, Wilson, Griffith and others to take the word "Kaushika." as the son of Kushik."

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