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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आश्रु॑त्कर्ण श्रु॒धी हवं॒ नूचि॑द्दधिष्व मे॒ गिरः॑। इन्द्र॒ स्तोम॑मि॒मं मम॑ कृ॒ष्वा यु॒जश्चि॒दन्त॑रम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आश्रु॑त्ऽकर्ण । श्रु॒धि । हव॑म् । नू । चि॒त् । द॒धि॒ष्व॒ । मे॒ । गिरः॑ । इन्द्र॑ । स्तोम॑म् । इ॒मम् । मम॑ । कृ॒ष्व । यु॒जः । चि॒त् । अन्त॑रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आश्रुत्कर्ण श्रुधी हवं नूचिद्दधिष्व मे गिरः। इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आश्रुत्ऽकर्ण। श्रुधि। हवम्। नू। चित्। दधिष्व। मे। गिरः। इन्द्र। स्तोमम्। इमम्। मम। कृष्व। युजः। चित्। अन्तरम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 10; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स एवोपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे आश्रुत्कर्ण इन्द्र जगदीश्वर ! चिद्यथा प्रियः सखा युजः प्रियस्य सख्युर्गिरः प्रेम्णा शृणोति, तथैव त्वं नु मे गिरो हवं श्रुधि ममेमं स्तोममन्तरं दधिष्व युजो मामन्तःकरणं शुद्धं कृष्व कुरु॥९॥

    पदार्थः

    (आश्रुत्कर्ण) श्रुतौ विज्ञानमयौ श्रवणहेतू कर्णौ यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्र सम्पदादित्वात् करणे क्विप्। (श्रुधि) शृणु। अत्र बहुलं छन्दसीति श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपॄकृवृभ्य० (अष्टा०६.४.१०२) इति हेर्ध्यादेशः। (हवम्) आदातव्यं सत्यं वचनम्। (नु) क्षिप्रार्थे। नु इति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) पूजार्थे। चिदिदं ब्रूयादिति पूजायाम्। (निरु०१.४) (दधिष्व) धारय। ‘दध धारणे’ इत्यस्माल्लोट्, छन्दस्युभयथेत्यार्द्धधातुकाश्रयेणेडागमः। (मे) मम स्तोतुः (गिरः) वाणीः (इन्द्र) सर्वान्तर्यामिन्सर्वतः श्रोतः ! (स्तोमम्) स्तूयते येनासौ स्तोमस्तं स्तुतिसमूहम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (मम) स्तोतुः (कृष्व) कुरु। ‘कृञ्’ इत्यस्माल्लोटि विकरणाभावः। (युजः) यो युनक्ति स युक् सखा तस्य सख्युः। ‘युजिर् योगे’ इत्यस्मादृत्विग्दधृगिति क्विन्। (चित्) इव। चिदित्युपमार्थे। (निरु०१.४) (अन्तरम्) अन्तःशोधनमाभ्यन्तरं वा॥९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरस्य सर्वज्ञत्वेन जीवेन प्रयुक्तस्य वाग्व्यवहारस्य यथावत् श्रोतृत्वेन सर्वाधारत्वेनान्तर्यामितया जीवान्तःकरणयोर्यथावच्छोधकत्वेन सर्वस्य मित्रत्वाच्चायमेवैकः सदैव ज्ञातव्यः प्रार्थनीयश्चेति॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी परमेश्वर का निरूपण अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    (आश्रुत्कर्ण) हे निरन्तर श्रवणशक्तिरूप कर्णवाले (इन्द्र) सर्वान्तर्यामि परमेश्वर ! (चित्) जैसे प्रीति बढ़ानेवाले मित्र अपनी (युजः) सत्यविद्या और उत्तम-उत्तम गुणों में युक्त होनेवाले मित्र की (गिरः) वाणियों को प्रीति के साथ सुनता है, वैसे ही आप (नु) शीघ्र ही (मे) मेरी (गिरः) स्तुति तथा (हवम्) ग्रहण करने योग्य सत्य वचनों को (श्रुधि) सुनिये। तथा (मम) अर्थात् मेरी (स्तोमम्) स्तुतियों के समूह को (अन्तरम्) अपने ज्ञान के बीच (दधिष्व) धारण करके (युजः) अर्थात् पूर्वोक्त कामों में उक्त प्रकार से युक्त हुए हम लोगों को (अन्तरम्) भीतर की शुद्धि को (कृष्व) कीजिये॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जो सर्वज्ञ जीवों के किये हुए वाणी के व्यवहारों का यथावत् श्रवण करनेहारा सर्वाधार अन्तर्यामी जीव और अन्तःकरण का यथावत् शुद्धि हेतु तथा सब का मित्र ईश्वर है, वही एक जानने वा प्रार्थना करने योग्य है॥९॥

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    विषय

    फिर भी परमेश्वर का निरूपण इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे आश्रुत्कर्ण इन्द्र जगदीश्वर ! चित् यथा प्रियः सखा युजः प्रियस्य सख्युः गिरः प्रेम्णा शृणोति, तथैव त्वं  नु मे गिरः हवम् श्रुधि मम इमं  स्तोमम् अन्तरम्  दधिष्व युजः माम् अन्तःकरणं  शुद्धं  कृष्व कुरु॥९॥

    पदार्थ

    हे (आश्रुत्कर्ण) श्रुतौ विज्ञानमयौ श्रवणहेतू कर्ण यस्य तत्सम्बुद्धौ= जिसके कान सुनने के लिये विशिष्ट श्रवण का साधन बनते है, ऐसे प्रज्ञान के, (इन्द्र) सर्वन्तर्यामिन्सर्वतः=सर्वान्तर्यामी और हर ओर से जानने वाले परमेश्वर, (जगदीश्वर)=परमेश्वर, (चित्) पूजार्थे=पूजा के लिये, (यथा)=जैसे, (प्रियः)=प्रिय, (सखा)=मित्र, (युजः) यो युनक्ति स युक् सखा तस्य सख्युः=जो जुड़ता है, वह मित्र है, उसकी मित्रता से (गिरः) वाणीः=वाणी, (प्रेम्णा)=स्नेह से, (शृणोति)=सुनता है, (तथैव)=वैसे ही, (त्वम्)=आप, (नु)=शीघ्र, (मे)=मेरी, (गिरः)=वाणी, (हवम्)=ग्रहण करने योग्य, (श्रुधि) शृणु=सुनिये, (मम)=मेरी, (इमम्)=इस, (स्तोमम्) स्तूयते येनासौ स्तोमस्तं स्तुतिसमूहम्=जिन स्तुतियों से पूजा की जाती है, उनके समूह से, (अन्तरम्)=अन्तःकरण में (दधिष्व) धारय=धारण करके, (युजः) यो युनक्ति स युक् सखा तस्य सख्युः=जो जोड़ता है, वह मित्र है, उसकी मित्रता से, (माम्)=मुझको, (अन्तःकरणंम्)=अन्तःकरण को, शुद्धं= शुद्ध, (कृष्व) कुरु= कीजिये॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

     इस मन्त्र में उपमा अलेकार है। ईश्वर के सर्वज्ञ होने से जीवों की वाणी और व्यहारस्य का  यथावत्, सुनने से, समस्त संसार के धारण करने से और सबका मित्र होने से मनुष्यों के द्वारा, यह ही एक सदैव जानने और प्रार्थना करने योग्य है। 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

     हे (आश्रुत्कर्ण) जिसके कान सुनने के लिये विशिष्ट श्रवण का साधन बनते है, ऐसे प्रज्ञान के, (इन्द्र) सर्वान्तर्यामी और हर ओर से जानने वाले (जगदीश्वर) परमेश्वर! (चित्) पूजा के लिये, (यथा) जैसे (प्रियः) प्रिय (सखा) मित्र (युजः) जो जुड़ता है, वह मित्र है, उसकी मित्रता से, (प्रियस्य) प्रिय की (सख्युः) मित्रता से (गिरः) वाणी (प्रेम्णा) स्नेह से (शृणोति) सुनता है। (तथैव) वैसे ही (त्वम्) आप (नु) शीघ्र (मे) मेरी (हवम्) ग्रहण करने योग्य (गिरः) वाणी (श्रुधि) सुनिये। (मम) मेरी (इमम्) इस (स्तोमम्) जिन स्तुतियों से पूजा की जाती है, उनके समूह को (अन्तरम्) अन्तःकरण में (दधिष्व) धारण करके (युजः) जोड़ने वाले मित्र की मित्रता से (माम्) मेरे (अन्तःकरणम्) अन्तःकरण को (शुद्धं-कृष्व) शुद्ध कीजिये॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आश्रुत्कर्ण) श्रुतौ विज्ञानमयौ श्रवणहेतू कर्णौ यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्र सम्पदादित्वात् करणे क्विप्। (श्रुधि) शृणु। अत्र बहुलं छन्दसीति श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपॄकृवृभ्य० (अष्टा०६.४.१०२) इति हेर्ध्यादेशः। (हवम्) आदातव्यं सत्यं वचनम्। (नु) क्षिप्रार्थे। नु इति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) पूजार्थे। चिदिदं ब्रूयादिति पूजायाम्। (निरु०१.४) (दधिष्व) धारय। 'दध धारणे' इत्यस्माल्लोट्, छन्दस्युभयथेत्यार्द्धधातुकाश्रयेणेडागमः। (मे) मम स्तोतुः (गिरः) वाणीः (इन्द्र) सर्वान्तर्यामिन्सर्वतः श्रोतः ! (स्तोमम्) स्तूयते येनासौ स्तोमस्तं स्तुतिसमूहम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (मम) स्तोतुः (कृष्व) कुरु। 'कृञ्' इत्यस्माल्लोटि विकरणाभावः। (युजः) यो युनक्ति स युक् सखा तस्य सख्युः। 'युजिर् योगे' इत्यस्मादृत्विग्दधृगिति क्विन्। (चित्) इव। चिदित्युपमार्थे। (निरु०१.४) (अन्तरम्) अन्तःशोधनमाभ्यन्तरं वा॥९॥
    विषयः- पुनः स एवोपदिश्यते।

    अन्वय- हे आश्रुत्कर्ण इन्द्र जगदीश्वर ! चिद्यथा प्रियः सखा युजः प्रियस्य सख्युर्गिरः प्रेम्णा शृणोति, तथैव त्वं नु मे गिरो हवं श्रुधि ममेमं स्तोममन्तरं दधिष्व युजो मामन्तःकरणं शुद्धं कृष्व कुरु॥९॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरस्य सर्वज्ञत्वेन जीवेन प्रयुक्तस्य वाग्व्यवहारस्य यथावत् श्रोतृत्वेन सर्वाधारत्वेनान्तर्यामितया जीवान्तःकरणयोर्यथावच्छोधकत्वेन सर्वस्य मित्रत्वाच्चायमेवैकः सदैव ज्ञातव्यः प्रार्थनीयश्चेति॥९॥

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    विषय

    श्रुत्कर्ण बनना

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र की 'सं गा अस्मभ्यं धूनुहि' इस प्रार्थना को सुनकर प्रभु जीव से कहते हैं कि (आश्रुत्कर्ण) - सब प्रकार से सुननेवाले हैं कान जिसके  , ऐसे (इन्द्र) - जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (हवम्) - मेरे आह्वान को (श्रुधि) - सुन । जैसे पिता पुत्र को किसी बात के लिए कहे और पुत्र अनसुना कर दे तो कहते हैं कि इसे तो कुछ कहना व्यर्थ है  , यह तो सब सुझावों को बहिरे कानों से अनसुना कर देता है  , इसी प्रकार प्रभु की प्रेरणा को हम सामान्यतः सुनते नहीं । प्रभु कहते हैं कि "मैं प्रेरणा करता रहूँ तू सुने ही ना' ऐसा नहीं तू मेरी प्रेरणा को सुन । 

    २. और (नु) - शीघ्र ही (मे गिरः) - इन वेदवाणियों को (दधिष्व) - धारण कर  , इनको चित्त में स्थान दे । 

    ३. (युजः) - सदा तेरे साथ रहनेवाला जो मैं तेरा साथी हूँ उस (मम) - मेरे (इमं स्तोमम्) - इन साम - मन्त्रों द्वारा किये जानेवाले स्तवन् को (चित्) - निश्चय (अन्तरम्) - अपने अधिक समीप (कृष्वा) - कर अर्थात् तुझे प्रभु - स्तवन प्रियतम वस्तु हो  , अन्य सब वस्तुओं से इसका स्थान तेरे जीवन में सर्वाधिक हो  , तभी तो तू उन कर्मों को कर सकेगा  , जो तुझे स्वर्ग देनेवाले हों  , तभी तू कामादि 

    शत्रुओं का संहार कर पाएगा । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु की प्रेरणा को सुनें  , प्रभु की वाणियों को चित्त में धारण करें  , प्रभु - स्तवन हमें सर्वाधिक प्रिय हो । 

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    विषय

    पक्षान्तर में आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( आश्रुत्कर्ण इन्द्र ) सर्वत्र श्रवण करनेवाले कानों से युक्त परमेश्वर ! तू ( नु ) निश्चय से ( मे हवं ) मेरी स्तुति को ( श्रुधि ) श्रवण करता है । तू ( गिरः दधिष्व ) मेरी स्तुति वाणियों को धारण कर, सुन । ( मम युजः ) मुझ समाहित चित्त वाले योगाभ्यासी साधक मित्र के ( इमं स्तोमं चित् ) इस स्तुति समूह को ( अन्तरम् कृष्व ) भीतर कर । अथवा ( मम अन्तरं शुद्धं कृष्व ) मेरे हृदय को शुद्ध कर । आचार्य पक्ष में—(अश्रुष्कर्ण) हे विज्ञानमय कर्णों से युक्त ! बहुश्रुत ! राजा के पक्ष में—सब तरफ़ के वृत्तान्त सुनने हारे साधनों से युक्त ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १—३, ५, ६, ७, ९-१२ अनुष्टुभः ॥ भुरिगुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो सर्वज्ञ, जीवांच्या व्यवहारांना यथायोग्य श्रवण करणारा, सर्वाधार, अंतर्यामी जीव व अंतःकरणाची यथायोग्य शुद्धी करणारा व सर्व माणसांचा मित्र आहे. त्या ईश्वराला माणसांनी जाणावे किंवा त्याचीच प्रार्थना करावी. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord of instant and universal ear, listen to my voice. Hold my prayer in your heart. Indra, it is the song of a dear friend. Take me in along with it, cleanse and sanctify my heart and soul.

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    Subject of the mantra

    Yet again God has been described in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (āśrutkarṇa)=whose ear become specific means of hearing, having such wisdom; (indra)=indwelling and knowing from every direction , (jagadīśvara)=God, (cit)=for prayer, (yathā)=as, (priyaḥ)=dear, (sakhā)=friend, (yujaḥ)=by friendship of that friend who unites, (priyasya)=of that dear, (sakhyuḥ)=by friendship, (giraḥ)=the speech, (premṇā)=with love, (śṛṇoti)=listens, (tathaiva)=in the same way, (tvam)=you, (nu)=immediately, (me)=my, (havam)=fit to be accepted, (giraḥ)=the speech, (śrudhi)=Listen, (mama)=my, (stomam)=by doxology of Vedas, to their group, (antaḥkaraṇam)=with indweller, (dadhiṣva)=holding, (yujaḥ)=who combines is a friend, by his friendship, (mam)=my, (antaram)=inner sense (śuddham)=purify.

    English Translation (K.K.V.)

    O indwelling and knowing from every direction God! Whose ears become specific means of listening. Having such wisdom, as for prayer, by friendship of that friend who unites and listens the speech. In the same way, you immediately, listen my speech, fit to be accepted by doxology of Vedas, holding their group in inner sense, who combines is a friend. By his friendship purify my indweller.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Being the omniscient God, listening the speech and habits of the living beings as they are, sustaining the whole world and being the friend of all, this (God) alone is always worthy of being known and prayed to by humans.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Then again He (God) is taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Lord ! Thou Whose ears hear all things, listen quickly to my invocation, hold in Thy heart my praise, keep near to thee, as it were (the words of a friend.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know this One God and pray to Him, because He being Omnipotent, listens to what we pray. He the Innermost Spirit and Purifier of the soul is Friendly to all.

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