ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 10/ मन्त्र 12
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
परि॑ त्वा गिर्वणो॒ गिर॑ इ॒मा भ॑वन्तु वि॒श्वतः॑। वृ॒द्धायु॒मनु॒ वृद्ध॑यो॒ जुष्टा॑ भवन्तु॒ जुष्ट॑यः॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । त्वा॒ । गि॒र्व॒णः॒ । गिरः॑ । इ॒माः । भ॒व॒न्तु॒ । वि॒श्वतः॑ । वृ॒द्धऽआ॑युम् । अनु॑ । वृद्ध॑यः । जुष्टाः॑ । भ॒व॒न्तु॒ । जुष्ट॑यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः। वृद्धायुमनु वृद्धयो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः॥
स्वर रहित पद पाठपरि। त्वा। गिर्वणः। गिरः। इमाः। भवन्तु। विश्वतः। वृद्धऽआयुम्। अनु। वृद्धयः। जुष्टाः। भवन्तु। जुष्टयः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 10; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
इमाः सर्वाः स्तुतय ईश्वरमेव स्तुवन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे गिर्वण इन्द्र ! विश्वतो या इमा गिरः सन्ति ताः परि सर्वतस्त्वां भवन्तु तथा चेमा वृद्धयो जुष्टयो जुष्टा वृद्धायुं त्वामनुभवन्तु॥१२॥
पदार्थः
(परि) परितः। परीति सर्वतोभावं प्राह। (निरु०१.३) (त्वा) त्वां सर्वस्तुतिभाजनमिन्द्रमीश्वरम् (गिर्वणः) गीर्भिर्वेदानां विदुषां च वाणीभिर्वन्यते संसेव्यते यस्तत्सम्बुद्धौ (गिरः) स्तुतयः (इमाः) वेदस्थाः प्रत्यक्षा विद्वत्प्रयुक्ताः (भवन्तु) (विश्वतः) विश्वस्य मध्ये (वृद्धायुम्) आत्मनो वृद्धमिच्छतीति तम् (अनु) क्रियार्थे (वृद्धयः) वर्ध्यन्ते यास्ताः (जुष्टाः) याः प्रीणन्ति सेवन्ते ताः (भवन्तु) (जुष्टयः) जुष्यन्ते यास्ताः॥१२॥
भावार्थः
हे भगवन् ! या योत्कृष्टा प्रशंसा सा सा तवैवास्ति, या या सुखानन्दवृद्धिश्च सा सा त्वामेव संसेवते। य एवमीश्वरस्य गुणान् तत्सृष्टिगुणांश्चानुभवन्ति त एव प्रसन्ना विद्यावृद्धा भूत्वा विश्वस्मिन् पूज्या जायन्ते॥१२॥अत्र सायणाचार्य्येण ‘परिभवन्तु सर्वतः प्राप्नुवन्तु’ इत्यशुद्धमुक्तम्। कुतः, परौ भुवोऽवज्ञाने इति परिपूर्वकस्य ‘भू’ धातोस्तिरस्कारार्थे निपातितत्वात्। इदं सूक्तमार्य्यावर्त्तनिवासिभिः सायणाचार्य्यादिभिस्तथा यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्। अत्र ये क्रमेण विद्यादिशुभगुणान् गृहीत्वेश्वरं च प्रार्थयित्वा सम्यक् पुरुषार्थमाश्रित्य धन्यवादैः परमेश्वरं प्रशंसन्ति त एवाविद्यादिदुष्टगुणान्निवार्य्य शत्रून् विजित्य दीर्घायुषो विद्वांसो भूत्वा सर्वेभ्यः सुखसम्पादनेन सदानन्दयन्त इत्यस्य दशमस्य सूक्तार्थस्य नवमसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥
हिन्दी (4)
विषय
उक्त सब स्तुति ईश्वर ही के गुणों का कीर्त्तन करती हैं, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-
पदार्थ
हे (गिर्वणः) वेदों तथा विद्वानों की वाणियों से स्तुति को प्राप्त होने योग्य परमेश्वर ! (विश्वतः) इस संसार में (इमाः) जो वेदोक्त वा विद्वान् पुरुषों की कही हुई (गिरः) स्तुति हैं, वे (परि) सब प्रकार से सब की स्तुतियों से सेवन करने योग्य जो आप हैं, उनको (भवन्तु) प्रकाश करनेहारी हों, और इसी प्रकार (वृद्धयः) वृद्धि को प्राप्त होने योग्य (जुष्टाः) प्रीति को देनेवाली स्तुतियाँ (जुष्टयः) जिनसे सेवन करते हैं, वे (वृद्धायुम्) जो कि निरन्तर सब कार्य्यों में अपनी उन्नति को आप ही बढ़ानेवाले आप का (अनुभवन्तु) अनुभव करें॥१२॥
भावार्थ
हे भगवन् परमेश्वर ! जो-जो अत्युत्तम प्रशंसा है, सो-सो आपकी ही है, तथा जो-जो सुख और आनन्द की वृद्धि होती है, सो-सो आप ही का सेवन करके विशेष वृद्धि को प्राप्त होती है। इस कारण जो मनुष्य ईश्वर तथा सृष्टि के गुणों का अनुभव करते हैं, वे ही प्रसन्न और विद्या की वृद्धि को प्राप्त होकर संसार में पूज्य होते हैं॥१२॥इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने परिभवन्तु इस पद का अर्थ यह किया है कि- सब जगह से प्राप्त हों, यह व्याकरण आदि शास्त्रों से अशुद्ध है, क्योंकि परौ भुवोऽवज्ञाने व्याकरण के इस सूत्र से परिपूर्वक भू धातु का अर्थ तिरस्कार अर्थात् अपमान करना होता है। आर्य्यावर्त्तवासी सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपखण्ड देशवासी साहबों ने इस दशवें सूक्त के अर्थ का अनर्थ किया है। जो लोग क्रम से विद्या आदि शुभगुणों को ग्रहण और ईश्वर की प्रार्थना करके अपने उत्तम पुरुषार्थ का आश्रय लेकर परमेश्वर की प्रशंसा और धन्यवाद करते हैं, वे ही अविद्या आदि दुष्टों गुणों की निवृत्ति से शत्रुओं को जीत कर तथा अधिक अवस्थावाले और विद्वान् होकर सब मनुष्यों को सुख उत्पन्न करके सदा आनन्द में रहते हैं। इस अर्थ से इस दशम सूक्त की सङ्गति नवम सूक्त के साथ जाननी चाहिये॥
विषय
उक्त सब स्तुति ईश्वर ही के गुणों का कीर्त्तन करती हैं, इस विषय का इस मन्त्र में प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे गिर्वण इन्द्र ! विश्वतः या इमा गिरः सन्ति ताः परि सर्वतः त्वां भवन्तु तथा च इमा वृद्धयः जुष्टयः जुष्टा वृद्धायुं त्वाम् अनु भवन्तु॥१२॥
पदार्थ
हे (गिर्वण) गीर्भिर्वेदानां विदुषां च वाणीभिर्वन्यते संसेव्यते यस्त्सम्बुद्धौ=वेदों और विद्वानों की वाणियों से स्तुति और सेवा करते हैं जो, उनके ज्ञान में, (इन्द्र)=परमेश्वर, (विश्वतः) विश्वस्य मध्ये=विश्व के बीच में, (या)=जो, (इमाः) वेदस्थः प्रत्यक्षा विद्वत्प्रयुक्ताः=वेदोक्त प्रत्यक्ष और विद्वानों के द्वारा प्रयोग की हुई, (गिरः) स्तुतयः=स्तुतियां, (सन्ति)=हैं, (ताः)=वे, (परि) परितः=हर ओर से, (सर्वतः)=हर ओर से, (त्वाम)=आपको, (भवन्तु)=हों, (तथा)=वैसे ही, (च)=और, (इमा)=ये, (वृद्धयः) वर्धन्ते यास्ताः=वृद्धि को प्राप्त होने योग्य, (जुष्टयः) जुष्यन्ते यास्ताः=जिनसे सेवन करते हैं, (जुष्टाः) या प्रीणन्ति सेवन्ते ताः=आनन्द करती हैं/सेवा पाती हैं, वो (त्वाम्) =आप, (अनुभवन्तु)=अनुभव करें॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
हे परमेश्वर ! जो-जो अत्युत्तम प्रशंसा है, सो-सो आपकी ही है। जो-जो सुख और आनन्द की वृद्धि होती है, वह-वह आप ही का सेवन करके होती है। जो मनुष्य ईश्वर के गुणों और सृष्टि के गुणों का अनुभव करते हैं, वे ही प्रसन्न और विद्यावृद्ध होकर इस संसार में पूज्य होते हैं॥१२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (गिर्वण) जो वेदों और विद्वानों की वाणियों से स्तुति और सेवा करते हैं, उनके ज्ञान में स्थित (इन्द्र) परमेश्वर! (विश्वतः) विश्व के बीच में (या) जो (इमाः) वेदोक्त प्रत्यक्ष और विद्वानों के द्वारा प्रयोग की हुई (गिरः) स्तुतियां (सन्ति) हैं। (ताः) वे (सर्वतः) हर ओर से (त्वाम) आपको (भवन्तु) समर्पित हों । (तथा) वैसे ही (इमा) ये (वृद्धयः) वृद्धि को प्राप्त होने योग्य (जुष्टयः) जिनसे सेवन करते हैं, वो (त्वाम्) आप (च) भी (अनुभवन्तु) अनुभव करें॥१२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (परि) परितः। परीति सर्वतोभावं प्राह। (निरु०१.३) (त्वा) त्वां सर्वस्तुतिभाजनमिन्द्रमीश्वरम् (गिर्वणः) गीर्भिर्वेदानां विदुषां च वाणीभिर्वन्यते संसेव्यते यस्तत्सम्बुद्धौ (गिरः) स्तुतयः (इमाः) वेदस्थाः प्रत्यक्षा विद्वत्प्रयुक्ताः (भवन्तु) (विश्वतः) विश्वस्य मध्ये (वृद्धायुम्) आत्मनो वृद्धमिच्छतीति तम् (अनु) क्रियार्थे (वृद्धयः) वर्ध्यन्ते यास्ताः (जुष्टाः) याः प्रीणन्ति सेवन्ते ताः (भवन्तु) (जुष्टयः) जुष्यन्ते यास्ताः॥१२॥
विषयः- इमाः सर्वाः स्तुतय ईश्वरमेव स्तुवन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे गिर्वण इन्द्र ! विश्वतो या इमा गिरः सन्ति ताः परि सर्वतस्त्वां भवन्तु तथा चेमा वृद्धयो जुष्टयो जुष्टा वृद्धायुं त्वामनुभवन्तु॥१२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे भगवन् ! या योत्कृष्टा प्रशंसा सा सा तवैवास्ति, या या सुखानन्दवृद्धिश्च सा सा त्वामेव संसेवते। य एवमीश्वरस्य गुणान् तत्सृष्टिगुणांश्चानुभवन्ति त एव प्रसन्ना विद्यावृद्धा भूत्वा विश्वस्मिन् पूज्या जायन्ते॥१२॥
विषय
ज्ञान का वातावरण
पदार्थ
१. प्रभु ही जीव से कह रहे हैं कि हे (गिर्वणः) - वेदवाणियों का सेवन करनेवाले जीव ! (इमा गिरः) - ये वाणियाँ ही (त्वा विश्वतः परि भवन्तु) - तुझे चारों ओर से घेरे रहें । तू केन्द्र हो , तेरे चारों ओर ज्ञान की वाणियाँ हों , मनुष्य का सर्वोच्च आनन्द इसी में है कि ज्ञान के वातावरण में रहे । २. ये ज्ञान की वाणियाँ (वृद्धायुम् अनु) - बढ़ी हुई आयुवाले तेरे दीर्घायुष्य के अनुपात में ही (वृद्धयः) - बढ़नेवाली हों । तेरी आयु बढ़ती जाए तो आयुष्य की वृद्धि के साथ ये वाणियाँ भी बढ़ती जाएँ , अर्थात् तेरा ज्ञान आयुष्य - वृद्धि के साथ बढ़ानेवाला हो ।
३. (जुष्टयः) प्रीतिपूर्वक प्रभु का सेवन जिनसे किया जाता है वे ये ज्ञान की वाणियाँ तुझे (जुष्टाः) - प्रिय (भवन्तु) - हों । तू इनका प्रेमपूर्वक सेवन करनेवाला हो । ज्ञान में तुझे आनन्द का अनुभव हो । ये ज्ञान की वाणियाँ ही प्रभु का उत्कृष्ट उपासन हो जाती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा सारा वातावरण ज्ञान - प्रधान हो । आयुष्य के साथ हमारा ज्ञान बढ़ता जाए और हमें ज्ञानयज्ञ के द्वारा प्रभु की उपासना प्रिय हो ।
विशेष / सूचना
विशेष - इस सूक्त का प्रारम्भ प्रभुगुण - गायन से होता है । प्रभु को ही हम अपनी जीवन - यात्रा की पताका बनाते हैं [१] । विघ्नों को पार करते हुए , कर्तव्य कर्मों को करते हुए मोक्षरूप अर्थ को सिद्ध करते हैं [२] । वेदवाणियों को सुनते हुए [३] । ज्ञान व यज्ञ का अपने में वर्धन करते हैं [४] । प्रभु की मित्रता में [६] निर्मल ज्ञान को प्राप्त करते हैं [७] । जितेन्द्रिय व श्रमशील बनकर सोम की रक्षा करते हैं [११] । ज्ञान के वातावरण में रहते हुए ज्ञान - यज्ञ से प्रभु का उपासन करनेवाले बनते हैं [१२] । 'अब हमारी सब वाणियाँ प्रभु का ही वर्धन करनेवाली होती हैं इन शब्दों से ११ वाँ सूक्त प्रारम्भ होता है । यह सूक्त 'जेता मधुच्छन्दा' का है - जो मधुच्छन्दा का पुत्र बनकर , अर्थात् अत्यन्त मधुर इच्छाओंवाला बनकर विजेता' जयशील बनता है ।
विषय
पक्षान्तर में पञ्चकोषयुक्त जीव का वर्णन ।
भावार्थ
हे (गिर्वणः) वेदवाणियों और विद्वज्जनों की वाणियों को सेवन करने वाले, उन वाणियों के एकमात्र लक्ष्य ! ( इमाः गिरः ) ये समस्त वाणियें ( विश्वतः ) सब प्रकार से ( त्वा परि भवन्तु ) तुझे ही लक्ष्य करके हों, तेरे ही गुणों का वर्णन करें । ( वृद्धयः ) वृद्धि को प्राप्त होने वाली, ( जुष्टयः ) सेवन करने योग्य वाणियां तुझ (वृद्धायुम्) महान् को ही लक्ष्य कर ( जुष्टाः ) अति प्रीतिकर ( अनु भवन्तु ) हों। आचार्य या विद्वान् के पक्ष में— हे वाणियों के सेवन करनेहारे ! ये सब वाणियां तुझे प्राप्त हों । वृद्धि उन्नति करनेवाली प्रीति उत्पादक वाणियां दीर्घायु तुझको प्रिय लगे । इति विंशोवर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १—३, ५, ६, ७, ९-१२ अनुष्टुभः ॥ भुरिगुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमेश्वरा! जी जी उत्कृष्ट प्रशंसा असते ती ती तुझीच असते व जो जो सुख व आनंद वाढतो तो तो तुझ्या सेवनाने विशेष करून वाढतो. यामुळे जी माणसे ईश्वर व सृष्टीच्या गुणांचा अनुभव घेतात ती प्रसन्न होऊन विद्यावृद्धी करून जगात पूज्य ठरतात. ॥ १२ ॥
टिप्पणी
या मंत्रात सायणाचार्याने ‘परिभवन्तु’ या पदाचा अर्थ केलेला आहे तो हा की - ‘हे सर्व स्थानी प्राप्त व्हावेत’ हे व्याकरण इत्यादी शास्त्राने अशुद्ध आहे, कारण परौ ‘‘भुवोऽव ज्ञाने ’’ व्याकरणाच्या या सूत्राने परिपूर्वक ‘भू’ धातूचा अर्थ तिरस्कार अर्थात अपमान करणे असा होतो. आर्यावर्तवासी सायणाचार्य इत्यादी युरोपखंडदेशवासी साहेबांनी या दहाव्या सूक्ताच्या अर्थाचा अनर्थ केलेला आहे.
इंग्लिश (3)
Meaning
May all these holy songs of the divine singers from all sides celebrate you, sole object of the sacred voice of eternity. May all the songs of love and worship glorify the lord of eternal existence. May all these songs be acceptable to the Lord and delightful and elevating for us.
Subject of the mantra
All aforesaid praises chant virtues of God only, this subject has been elucidated in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (girvaṇa)=existent in the knowledge of those who pray and devote through Veads and speeches of scholars, (indra)=God, (viśvataḥ)=amidst universe, (yā)=which, (imāḥ)=Evident in Vedas and used by scholars, (giraḥ)=praises, (santi)=are, (tāḥ)=they, (sarvataḥ)=from every direction, (tvāma)=to you, (bhavantu)=should be, (tathā)=in the same way, (imā)=thesr two , (vṛddhayaḥ)=capable of getting icreased, (juṣṭayaḥ)=with which one serves, (tvāma)=to you, (ca)=also, (anubhavantu)=feel.
English Translation (K.K.V.)
O existent in the knowledge of those who pray and devote through Vedas and speeches of scholars, God! Amidst universe, evident and stated in Vedas there are eulogies used by scholars, those must be dedicated to You only from every direction and in the same way, those who are capable of getting growth, having devotion to whom, You must also experience.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O existent in the knowledge of those who pray and devote through Vedas and speeches of scholars, God! Amidst universe, evident and stated in Vedas there are eulogies used by scholars, those must be dedicated to You only from every direction and in the same way, those who are capable of getting growth, having devotion to whom, You must also experience.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
All these hymns praise only the Lord is told in the 12th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God to be worshipped by the hymns of the Vedas and learned persons, may all praises on every side encompass Thee Who deservest all praise. May they spread Thy Kingdom (increase the number of Thy devotees) Who art present from all eternity and being agreeable to Thee, may yield delight to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
Sayanacharya has wrongly stated परिभवन्तु as सर्वत: प्राप्नुवन्तु because according to the rule of Grammar परोभुवोऽविशने परिभवन्तु means. May they insult you, which is absurd. This hymn has also been wrongly translated by Sayanacharya and Western Scholars like prof. Wilson and others. In this hymn, it is taught that those who having acquired knowledge and prayed to God, being industrious always glorify the Lord, destroy ignorance and other vices, conquer their enemies, become long lived learned scholars and bringing about others' welfare enjoy happiness and bliss. Thus this hymn is connected with the ninth hymn.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O God whatever glory and praise is there in the world, it is all Thine. What ever growth of happiness and bliss is there, all that glorifies Thee. Those who realize the attributes of God and the properties of the objects of His Universe enjoy happiness and always growing in wisdom become venerable, in the whole world.
Translator's Notes
The grammatical mistake pointed out by Rishi Dayananda in Sayanacharya's commentary is very remarkable and significant, as his (Sayanacharya's) admirers consider him to be most well-versed in Sanskrit Grammar. As a matter of fact the same mistake has been committed by Skanda Swami who explains परिभवन्तु as परिगृह्णन्तु and Venkata Madhava who, translates it as a Rishi Dayananda therefore explains it as परि-सर्वतः त्वांभवन्तु and not as त्वांपरिभवन्तु which changes the meaning altogether as the aphorism pointed out by Rishi Dayananda clearly denotes. We have already pointe out some mistakes committed by Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and other translators. Their conception of Indra has been wrong through out. That is why in the 11th Mantra they have taken कौशिक as the son of Kushik and have quoted some myth about it. Griffith's translation of the last mantra of this hymn is particularly absurd and worse than that of Wilson. 12. "Lover of song, may these our songs on every side encompass thee. Strengthening thee of lengthened life, May they be dear delights to thee. Prof. Wilson's is a bit better when he translates- "May they (our praises) augment the power of thee, who art long lived, and being agreeable to thee, may they yield delight (to us).
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